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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एक योगसे दूसरे योगका आश्रयले । एक पर्यायसे दूसरे पर्यायका चिन्तवन करे । और द्रव्यरूप अणुसे अणुका चिन्तवन करे । ऐसा अन्य ग्रन्थोंमें लिखा है ॥ २॥"
अर्थादिषु यथा ध्यानी संक्रामत्यविलम्बितम् ।।
पुनयावतते तेन प्रकारेण स हि खयम् ॥१८॥ __ अर्थ-जो ध्यानी अर्थ व्यञ्जन आदि योगोंमें जैसे शीघ्रतासे संक्रमण करता है वह ध्यानी अपने आप पुनः उसीप्रकार लौटता है ॥ १८ ॥
वियोगी पूर्वविद्यः स्यादिदं ध्यायत्यसौ मुनिः।।
सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वमतो मतम् ॥ १९ ॥ अर्थ-जिसके तीनों योग होते हैं और जो पूर्वका जाननेवाला होता है, वही मुनि इस पहले ध्यानको धारण करता है । इसलिये इस ध्यानका नाम सवितर्कसविचारसपृ. थक्त्व कहा है ॥ १९ ॥ ___ अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थ्यात्स प्रशान्तधीः ।
मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ॥२०॥ अर्थ-इस अचिन्त्य प्रभाववाले ध्यानके सामर्थ्यसे जिसका. चित्त शान्त होगया है ऐसा ध्यानी मुनि क्षणभरमें मोहनीय कर्मका मूलसे नाश करता है, अथवा उसका उपशम करता है ॥ २०॥
उकंच।
"इदमत्र तु तात्पर्य श्रुतस्कन्धमहार्णवात् ।। __ अर्थमेकं समादाय ध्यायनान्तरं व्रजेत् ॥ ३ ॥ अर्थ-इस ध्यानमें अर्थादिकके पलटनेका तात्पर्य यह है कि श्रुतस्कन्ध अर्थात् द्वादशांग शास्त्ररूप महासमुद्रसे एक अर्थको लेकर उसका ध्यान करता हुआ दूसरे अर्थको प्राप्त होता है ॥ ३ ॥
शब्दाच्छन्दान्तरं यायाद्योगं योगान्तरादपि ।
सविचारमिदं तस्मात्सवितर्क च लक्ष्यते ॥२१॥ अर्थ-यह ध्यान एक शब्दसें दूसरे शब्द पर जाता है और एक योगसे दूसरे योगपर जाता है इसलिये इसका नाम सविचारसवितर्क कहते हैं ॥ २१ ॥
श्रुतस्कन्धमहासिन्धुमवगाह्य महामुनिः।
ध्यायेत्पृथक्त्ववितर्कविचारं ध्यानमनिमम् ॥ २२ ॥ अर्थ-महामुनि द्वादशांग शास्त्ररूप महासमुद्रको अवगाहन करके, इस पृथक्त्ववितर्क विचार नामक पहले शुक्लध्यानको ध्यावे ॥ २२ ॥