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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
वितर्क तो छद्मस्थ योगी अर्थात् बारहवें गुणस्थान पर्यन्त अल्पज्ञानियोंके होते हैं । और अन्तके दो शुक्लध्यान सर्वथा रागादिदोषोंसे रहित ऐसे केवल ज्ञानियोंके होते हैं ॥ ७ ॥ श्रुतज्ञानार्थसम्बन्धाच्छ्रुतालम्बनपूर्वके ।
पूर्वे परे जिनेन्द्रस्य निःशेषालम्बनच्युते ॥ ८ ॥
अर्थ - प्रथम के दो शुक्लध्यान जो कि छद्मस्थोंके होते हैं वे श्रुतज्ञानके अर्थके संबंघसे श्रुतज्ञानके आलंबनपूर्वक हैं अर्थात् उनमें श्रुतज्ञानपूर्वक पदार्थका आलंबन होता है । और अन्तके दो शुक्लध्यान जो कि जिनेन्द्रदेवके होते हैं वे समस्त आलंबनरहित होते हैं ॥ ८ ॥
सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वं च कीर्तितम् | शुक्लमायं द्वितीयं तु विपर्यस्तमतोऽपरम् ॥ ९ ॥
अर्थ - आदिके दो शुक्लध्यानों में पहला शुक्लध्यान वितर्क, विचार और पृथक्त्वसहित है इसलिये इसका नाम पृथक्त्ववितर्कविचार है, और दूसरा इससे विपर्यस्त है, सो ही कहते हैं ॥ ९ ॥
सवितर्कम विचार मेकत्व पदलान्छितम् ।
कीर्तितं मुनिभिः शुक्कं द्वितीयमतिनिर्मलम् ॥ १० ॥
अर्थ - दूसरा शुक्लध्यान वितर्कसहित है, परन्तु विचाररहित है और एकत्व पदलान्छित अर्थात् सहित है। इसलिये इसका नाम मुनियोंने एकत्ववितर्कविचार कहां है । यह ध्यान अत्यन्त निर्मल है ॥ १० ॥
सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति तृतीयं सार्थनामकम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानं तुर्यमायैर्निवेदितम् ॥ ११ ॥
अर्थ-तीसरे शुक्लध्यानका सूक्ष्मक्रियाअंप्रतिपाति ऐसा सार्थक नाम है । इसमें उपयोगकी क्रिया नहीं है परन्तु कायकि क्रिया विद्यमान है । यह कायकी क्रिया घटते घटते जब सूक्ष्म रह जाती है तब यह तीसरा शुक्लध्यान होता है, और इससे इसका सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति ऐसा नाम है । और आर्यपुरुषोंने चौथे ध्यानका नाम समुच्छि - नक्रिय । अर्थात् व्युपरतक्रियानिवृत्ति ऐसा कहा है । इसमें कायकी क्रिया भी मिट है ॥ ११ ॥
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तत्र त्रियोगिनामाद्यं द्वितीयं त्वेकयोगिनाम् । तृतीयं तनुयोगानां स्यात्तुरीयमयोगिनाम् ॥ १२ ॥
अर्थ — शुक्लध्यानके चारों भेदोंमेंसे पहला जो पृथक्त्ववितर्कविचार है सो मन, वचन, काय इन तीनों योगोंवाले मुनियोंके होता है । क्योंकि, इसमें योग पलटते रहते हैं ।