Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 454
________________ ४३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ द्विचत्वारिंशं प्रकरणम् । अब आचार्य शुक्लध्यानका वर्णन करते हैं। शुक्लध्यान धर्म्यध्यानपूर्वक होते हैं, इसलिये प्रथम ही धर्मध्यानकी प्रेरणा करते हैं। शार्दूलविक्रीडितम् । रागााग्ररुजाकलापकलितं सन्देहलोलायितं विक्षिप्तं सकलेन्द्रियार्थगहने कृत्वा मनो निश्चलम् । संसारव्यसनप्रवन्धविलयं मुक्तर्विनोदास्पदं । धर्मध्यानमिदं विदन्तु निपुणा अत्यक्षसौख्यार्थिनः ॥१॥ अर्थ-अतीन्द्रिय सुखके चाहनेवाले निपुण मुनि प्रथम ही रागादिक तीव्र रोगोंके समूहोंसे व्याप्त, अनेक सन्देहोंसे चलायमान अर्थात् जबतक निर्णय न हो तबतक स्थिर न रहनेवाले और समस्त इन्द्रियोंके विषयरूप गहन वनमें विक्षिप्त अर्थात् भूले हुए मनको निश्चल करते हैं । संसारके कष्ट आपत्ति आदि व्यसनोंके प्रबंधसे रहित और मुक्तिके क्रीडा करनेका स्थान ऐसे इस ध्यानको धर्म्यध्यान कहते हैं। भावार्थ-मनको निश्चल करके, धर्मध्यान होता है। इसमें सांसारिक व्यापारके प्रवर्तनका सर्वथा अभाव है ॥ १॥ आत्मार्थ श्रय मुञ्च मोहगहनं मित्रं विवेकं कुरु वैराग्यं भज भावयख नियतं भेदं शरीरात्मनोः। . धर्म्यध्यानसुधासमुद्रकुहरे कृत्वावगाह परं .. पश्यानन्तसुखखभावकलितं सुक्तर्मुखाम्भोरुहम् ॥२॥ __ अथ-हे आत्मन् , तू आत्माके प्रयोजनका आश्रय कर अर्थात् और प्रयोजनोंको छोड़कर, केवल आत्माके प्रयोजनका ही आश्रय कर; तथा मोहरूपी वनको छोड, विवेक अर्थात् भेदज्ञानको मित्र बना, संसार देहके भोगोंसे वैराग्यका सेवन कर और परमार्थसे जो शरीर और आत्मामें भेद है उसका निश्चयसे चिन्तवन कर । और धर्म्यध्यानरूपी अमृतके समुद्रके कुहर ( मध्य )में परम अवगाहन (सान ) करके अनन्त सुख खभावसहित मुक्तिके मुखकमलको देख ॥ २॥ अब शुक्लध्यानका निरूपण करते हैं। अथ धमतिक्रान्तः शुद्धिं चात्यन्तिकी श्रितः । ध्यातुमारभते वीरः शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ॥३॥

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