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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
उदार है । और वह जैसे चन्द्रमाकी किरणोंसे समुद्र बढ़ता है वैसे ही निरन्तर पुण्यकी परंपरासे बढ़ता ही रहता है । भावार्थ - वहांका सुख सदा वृद्धिरूप है ॥ १८ ॥ देवराज्यं समासाद्यं यत्सुखं कल्पवासिनाम् । निर्विशन्ति ततोऽनन्तं सौख्यं कल्पातिवर्तिनः ॥ १९ ॥
अर्थ — इन्द्रपदको पानेकर कल्पवासियोंको जो सुख मिलता है उससे अनन्तगुणा सुख कल्पातीतों (नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और विजयादिक पांच विमानोंमें रहनेवाले अहमिन्द्रों ) को प्राप्त होता है ॥ १९ ॥
संभवन्त्यथ कल्पेषु तेष्वचिन्त्यविभूतिदम् ।
प्राशुवन्ति परं सौख्यं सुराः स्त्रीभोगलाञ्छितम् ॥ २० ॥
अर्थ - अथवा धर्म्यध्यानसे पर्याय छोड़कर, जो उन कल्पवर्गों में ( सोलह स्वगमें ) उत्पन्न होते हैं वे देव भी अचिन्त्य विभूतिके देनेवाले और स्त्रियोंके भोगोंसहित उत्कृष्ट सुखको प्राप्त होते हैं ॥ २० ॥
दशाङ्गभोगसम्भूतं महाष्टगुणवर्जितम् ।
यत्कल्पवासिनां सौख्यं तद्वक्तुं केन पार्यते ॥ २१ ॥
अर्थ - कल्पवासी देवोंका सुख दशाङ्ग भोगोंसे उत्पन्न हुआ है और अणिमादिक आठ महागुणों से बढ़ा हुआ है । इसलिये उस सुखको कौन वर्णन कर सकता है ॥ २१ ॥
सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तं सर्वाभ्युदयभूषितम् ।
नित्योत्सवयुतं दिव्यं दिवि सौख्यं दिवौकसाम् ॥ २२ ॥
अर्थ - खर्गमें देवोंका सुख सर्वद्वन्द्व अर्थात् क्षोभोंसे रहित है, समस्त अभ्युदयोंसे भूषित, नित्य उत्सवसहित और दिव्य है ॥ २२ ॥ प्रतिसमयमुदीर्ण स्वर्ग साम्राज्यरूढं सकलविषयबीजं खान्तदत्ताभिनन्दम् ।
ललितयुबतिलीलालिङ्गनादिप्रसूतं
सुखमेतुलमुदारं स्वर्गिणो निर्विशन्ति ॥ २३ ॥
अर्थ-स्वर्गके देव प्रत्येक समय में उदयरूप अर्थात् विच्छेदरहित, खर्गके साम्राज्यसे प्रसिद्ध, समस्त विषयोंका कारण, अन्तःकरणको आनन्द देनेवाले, सुन्दर देवाङ्गनाओंकी लीला और आलिंगनादिकसे उत्पन्न, अतुल और उदार सुखका अनुभव करते हैं ॥ २३ ॥