Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 455
________________ ४३१ ज्ञानार्णवः। अर्थ-इस धर्माध्यानके अनन्तर धर्म्यध्यानसे अतिक्रान्त होकर अर्थात् निकलकर; अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ.धीर वीर मुनि अत्यन्त निर्मल शुक्लध्यानके ध्यावनेका प्रारम्भ करता है ।। ३॥ निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठ्यते ॥४॥ अर्थ-जो निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित है, इन्द्रियातीत है और ध्यानकी धारणासे रहित है अर्थात् “मैं इसका ध्यान करूं" ऐसी इच्छासे रहित है और जिसमें चित्त अ न्तर्मुख अर्थात् अपने खरूपहीके सन्मुख है; उसको शुक्लध्यान कहते हैं ॥ ४ ॥ आदिसंहननोपेतः पूर्वज्ञः पुण्यचेष्टितः। चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति ॥५॥ अर्थ-जिसके प्रथम वज्र वृषभ नाराच संहनन है; जो पूर्व अर्थात् ग्यारह अंग चौदह पूर्वका जाननेवाला है और जिसकी पुण्यरूप चेष्टा हो अर्थात् शुद्धचारित्र हो; वही मुनि चारों प्रकारके शुक्लध्यानोंको धारण करने योग्य होता है ।। ५॥ . आर्या। 'शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजसः क्षयादुपशमाहा। वैडूर्यमणिशिखाइव सुनिर्मलं निष्पकम्पं च ॥१॥ अर्थ-आत्माके शुचिगुणके सम्बन्धसे इसका नाम शुक्ल पड़ा है । कषायरूपी रजके क्षय होनेसे अथवा उपशम होनेसे जो आत्माके निर्मल परिणाम होते है वहीं शुचिगुणका योग है । और वह शुक्लध्यान वैडूर्यमणिकी शिखाके समान निर्मल और निष्कंप अर्थात् कंपतासे रहित है ॥ १॥" . कषायमलविश्लेषात्पशमादा प्रसूयते। , यतः पुंसामतस्तज्ज्ञैः शुक्लमुक्तं निरुक्तिकम् ॥ ६॥ अर्थ-पुरुषोंके कषायरूपी मलके क्षय होनेसे अथवा उपशम होनेसे यह शुक्लध्यान होता है इसलिये उस ध्यानके जाननेवाले आचार्योंने इसका नाम शुक्ल ऐसा निरुक्तिपूर्वक अर्थात् सार्थक कहा है ॥ ६ ॥ छद्मस्थयोगिनीमाये दे तु शुक्ले प्रकीर्तिते । दे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञानचक्षुषाम् ॥ ७॥ अर्थ-शुक्लध्यानके पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृत्ति ऐसे चार भेद हैं। उनमेंसे पहिलेके दो अर्थात् पृथक्त्ववितर्क और एकत्व

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