Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 449
________________ ज्ञानार्णवः । ४२५ चलत्येवाल्पसत्वानां क्रियमाणमपि स्थिरम् । चेतः शरीरिणां शश्वद्विषयैर्व्याकुलीकृतम् ॥५॥ न खामित्वमतः शुक्ले विद्यतेऽत्यल्पचेतसाम् । आद्यसंहननस्यैव तत्प्रणीतं पुरातनैः ॥ ६ ॥ छिन्ने भिन्ने हते दग्धे देहे स्खमिव दूरगम् । प्रपश्यन् वर्षेवातादिदुःखैरपि न कम्पते ॥७॥ न पश्यति तदा किञ्चिन्न शृणोति न जिघति । स्पृष्टं किञ्चिन्न जानाति साक्षानिवृत्तलेपवत् ॥ ८॥ ___ कालापकम् ॥ अर्थ-अल्पवीर्य अर्थात् सामर्थ्यहीन प्राणियोंका मन स्थिर करते हुए भी निरन्तर विषयोंसे व्याकुल होता हुआ चलायमान होता ही है। इसलिये अतिशय अल्पचित्तवालोंका शुक्लध्यान करने में अधिकार नहीं है । प्राचीन मुनियोंने पहलेके (वज्र, वृषभ, नाराच ) संहननवालेके ही शुक्लध्यान कहा है । इसका कारण यह है कि इस संहननवालेका ही चित्र ऐसा होता है कि, शरीरको छेदने, भेदने, मारने और जलानेपर भी अपने आस्माको उस शरीरसे अत्यन्त दूर अर्थात् भिन्न देखता हुआ चलायमान नहीं होता और न वर्षाकालके पवन आदिक दुःखोंसे कम्पायमान होता है। तथा उस ध्यानके समय लेपकी मूर्ति अर्थात् रंगसे निकाली हुई चित्रामकी मूर्तिकी तरह हो जाता है। इस कारण, यह योगी न तो कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न कुछ सूंघता है और न कुछ स्पर्श किये हुएको जानता है। भावार्थ-ऐसे पुरुषके शुक्लध्यान होता है ॥ ५॥ आधसंहननोपेता निवेदपदवीं श्रिताः। कुर्वन्ति निश्चलं चेतः शुक्लध्यानक्षमं नराः ॥९॥ अर्थ-जिनके आदिका संहनन है और जो वैराग्य पदवीको प्राप्त हुए हैं, ऐसे पुरुष ही अपने चित्तको शुक्लध्यान करनेमें समर्थ ऐसा निश्चल करते हैं ॥९॥ सामग्र्योरुभयोर्ध्यातुर्ध्यानं बाह्यान्तरङ्गयोः । पूर्वयोरेव शुक्लं स्थानान्यथा जन्मकोटिषु ॥ १० ॥ अर्थ-इस प्रकार पूर्व कही हुई बाह्य और आभ्यन्तर अर्थात् आदिके संहनन और वैराग्यभाव इन दोनों सामग्रियोंसे ध्यान करनेवालेके शुक्लध्यान होता है। अन्यथा अर्थात् विना आदिके संहनन और वैराग्यभावके, करोडों जन्मोंमें भी नहीं हो सकता ॥ १० ॥ ५४

Loading...

Page Navigation
1 ... 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471