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४२४ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
अथैकचत्वारिंशं प्रकरणम् ।
commoomआगे श्रीशुभचन्द्राचार्य धर्म्यध्यानका फल वर्णन करते हुए प्रथम ही कुछ उपदेश करते हैं:
वंशस्थम् । प्रसीद शान्ति व्रज-सन्निरुद्ध्यतां
दुरन्तजन्मज्वरजिमितं मनः। अगाधजन्माणवपारवर्तिनां
यदि श्रियं वाञ्छसि विश्वदर्शिनाम् ॥१॥ अर्थ-हे आत्मन् , यदि तू अगाध संसाररूपी समुद्रके पारवर्ती और समस्त लोकालोकके देखनेवाले ऐसे अरहंत और सिद्ध भगवान्की लक्ष्मीकी इच्छा करता है तो प्रसन्न हो, शान्तता धारण कर और दुरन्त संसाररूप ज्वर करके मूर्छित मनको वश कर । भावार्थ-आचार्यका उपदेश है कि यदि तू ध्यान करना चाहता है तो प्रथम ही अपने मनको वशमें कर और शान्तभाव.धारण कर ॥ १॥ .
यदि रोढुं न शक्नोति तुच्छवीर्यो मुनिमनः।
तदा रागेतरध्वंसं कृत्वा कुर्यात्सुनिश्चलम् ॥२॥ 'अर्थ और तुच्छवीर्य मुनि अर्थात् सामर्थ्यहीन मुनि यदि अपने मनको वश नहीं कर सके तो रागद्वेषका नाश करके मनको निश्चल करै। भावार्थ-मनको रागद्वेषरूप परिणत न होने दे ॥२॥
अनुप्रेक्षाश्च धर्म्यस्य स्युः सदैव निवन्धनम् ।
चित्तभूमौ स्थिरीकृत्य स्वस्वरूपं निरूपय ॥ ३॥ अर्थ हे मुने! अनित्य अशरणादिक बारह अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्यादिकका चिन्तवन करना सदा धर्मध्यानका कारण है । इसलिये अपनी चित्तरूपी भूमिमें उन अनुप्रेक्षाओंको स्थिर करके अपने खरूपका अवलोकन कर। भावार्थ-यदि तेरा.. चित्त स्थिर न होता हो तो बारह भावनाओंका चिन्तवन कर। ये भावना धर्मध्यानमें कारण हैं ॥ ३ ॥
स्फोटयत्याशु निष्कम्पो यथा दीपो घनं तमः।
तथा कर्मकलकौघं मुनेयानं सुनिश्चलम् ॥४॥ अर्थ- जैसे निष्कम्प अर्थात् अचल दीपक सधन अन्धकारकों शीघ्र ही दूर कर देता है; उसी तरह मुनिका सुनिश्चल ध्यान भी कर्मकलंकके समूहको शीघ्र ही नाश करता है । भावार्थ-कर्मके नाश करनेके लिये ध्यान करना ही चाहिये ॥ ४ ॥