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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . अर्थ-जिससे मोम निकल गया है ऐसी मूषिकाके उदर में जैसा आकाशका आकार है तदाकार परमात्मा प्रभुका ध्यान करें ॥ २५ ॥ इसीका दूसरा दृष्टान्त कहते हैं।
सर्वावयवसम्पूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् ।
विशुद्धादर्शसङ्कान्तप्रतिविम्वसमप्रभम् ॥ २६ ॥ अर्थ-समस्त अवयवोंसे पूर्ण और समस्त लक्षणोंसे लक्षित ऐसे निर्मल दर्पणमें पड़ते हुए प्रतिविम्बके समान प्रभावाले परमात्माका चिन्तवन करै । भावार्थ-जैसे निर्मल दर्पणमें पुरुषके समस्त अवयव और लक्षण दिखाई पड़ते हैं उसी तरह परमात्माके प्रदेश शरीरके अवयवरूप परिणत हैं । और उनमें समस्त लक्षणोंकी तरह समस्त गुण रहते हैं ॥ २६ ॥
इत्यसौ सन्तताभ्यासवशात्संजातनिश्चयः। .
अपिखनाद्यवस्थासु तमेवाध्यक्षमीक्षते ॥ २७ ॥ अर्थ-इस प्रकार जिसके निरन्तर अभ्यासके वशसे निश्चय हो गया है ऐसा ध्यानी खमादिक अवस्थामें भी उसी परमात्माको प्रत्यक्ष देखता है। भावार्थ-दृढ अभ्याससे खमादिकमें भी परमात्मा ही दिखाई पड़ता है ॥ २७ ॥
सोऽहं सकलवित्सार्वः सिद्धः साध्यो भवच्युतः। परमात्मा परं ज्योतिर्विश्वदी निरञ्जनः ॥ २८ ॥ तदासौ निश्चलोऽमूर्तो निष्कलङ्को जगद्गुरुः।
.चिन्मानो विस्फुरत्युचैानध्यातृविवर्जितः ।। २९ ॥ . अर्थ-पूर्वोक्त प्रकारसे जब परमात्माका निश्चय हो जाता है और दृढ अभ्याससे उसका प्रत्यक्ष होने लगता है उस समय परमात्माका चिन्तवन इस प्रकार करै कि ऐसा परमात्मा मैं ही हूं, मैं ही सर्वज्ञ हूं, सर्वव्यापक हूं, सिद्ध हूं, तथा मैं ही साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य था । संसारसे रहित, परमात्मा, परमज्योतिखरूप, समस्त विश्वका देखनेवाला मैं ही हूं। मैं ही निरंजन हूं । ऐसा परमात्माका ध्यान करै । उस समय अपना खरूप निश्चल, अमूर्त अर्थात् शरीररहित, निष्कलङ्क, जगत्का गुरु, चैतन्यमात्र और ध्यान तथा ध्याताके भेदरहित ऐसा अतिशय स्फुरायमान होता है ॥ २८ ॥२९॥
पृथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि ।
प्रामोति स मुनिः साक्षाद्यथान्यत्वं न वुध्यते ॥ ३०॥ अर्थ-यह मुनि जिस समय पूर्वोक्त प्रकारसे परमात्माका ध्यान करता है उस समय परमात्मामें पृथक् भाव अर्थात् अलगपनेका उल्लंघन करके साक्षात् एकताको इस