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ज्ञानार्णवः । अर्थ-जो मुनि प्रमाण और नयोंके द्वारा अपने आत्मतत्त्वको जानता है वही योगी विना किसी सन्देहके परमात्माको जानता है । भावार्थ-जवतक प्रमाण और नयोंका खरूप तथा इनके द्वारा आत्माका स्वरूप न जाना जायगा तबतक कर्मसहित ही आत्मा शक्तिकी अपेक्षासे कर्मरहित है यह विरोध भी दूर न हो सकेगा । इन दोनोंका विरोध दूर करनेवाला स्याद्वाद है । इसलिये स्याद्वादको समझ कर, फिर यदि इन दोनोंका विचार करते हैं, तो कोई विरोध नहीं रहता और न भ्रम ही रहता है ॥ २१ ॥
अव कर्मरहित परमात्माका स्वरूप कहते हैं कि, जिसके द्वारा यह योगी अपने आत्माको रूपातीत ध्यानमें चिन्तवन करै
व्योमाकारमनाकारं निष्पन्नं शान्तमच्युतम् । चरमाङ्गात्कियन्यूनं स्वप्रदेशैर्घनैः स्थितम् ॥ २२ ॥ लोकाग्रशिखरासीनं शिवीभूतमनामयम् ।
पुरुषाकारमापन्नमप्यमूर्त च चिन्तयेत् ॥ २३ ॥ अर्थ-आकाशके आकार अर्थात् अमूर्त, अनाकार अर्थात् पुद्गलके आकारसे रहित, निष्पन्न अर्थात् फिर जिसमें किसी प्रकारकी हीनाधिकता न हो, शान्त अर्थात् क्षोभरहित, अच्युत अर्थात् जो अपने रूपसे कभी च्युत न हो, चरम शरीरसे किञ्चित् न्यून अर्थात् जिस शरीरसे मोक्ष हुआ है उस शरीरसे नासिकादि रन्ध्र प्रदेशोंसे हीन, अपने घनीभूत प्रदेशोंसे स्थित तथा लोकाकाशके अग्रभागमें स्थित, शिवीभूत अर्थात् पहिले अकल्याणरूप थे अब कल्याणरूप हुए ऐसे, अनामय अर्थात् रोगादिकसे सर्वथा रहित और पुरुषाकारको प्राप्त होकर भी अमूर्त अर्थात् आकार तो पुरुषका है परन्तु तो भी उसमें रूप रस गंध स्पर्शादिक नहीं हैं ऐसे परमात्माका ध्यान इस रूपातीत ध्यानमें करै ॥ २२ ॥ २३ ॥
निष्कलस्य विशुद्धस्य निष्पन्नस्य जगद्गुरोः।
चिदानन्दमयस्योचैः कथं स्यात्पुरुषाकृतिः ॥ २४ ॥ अर्थ-जो परमात्मा निष्कल अर्थात् देहरहित है, विशुद्ध अर्थात् द्रव्यभावरूप दोनों. मलोंसे रहित है, निष्पन्न अर्थात् जिसमें कुछ हीनाधिकता होनेवाली नहीं है, जो जगत्का गुरु है और जो चिदानन्दस्वरूप अर्थात् चैतन्य और आनन्दवरूप है, महान् है, ऐसे परमात्माके पुरुषाकृति अर्थात् पुरुषका आकार कैसे हो सकता है ? ॥ २४ ॥ इसका समाधान
विनिर्गतमधूच्छिष्टप्रतिमे मूषिकोदरे । यादृग्गगनसंस्थानं तदाकारं स्मरेद्विभुम् ॥ २५ ॥