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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-जिस ध्यानमें ध्यानी मुनि चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप आत्माको आत्मा ही स्मरण करै अर्थात् ध्यावै सो रूपातीत ध्यान माना गया है ॥ १६ ॥
वदन्ति योगिनो ध्यानं चित्तमेवमनाकुलम् ।
कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं संस्मरेन्मुनिः ॥ १७॥ ____ अर्थ-योगीश्वर चित्तके आकुलतारहित होने अर्थात् क्षोभरहित होनेको' ही ध्यान कहते हैं । तो कोई मुनि मोक्षप्राप्त आत्माका मरण कैसे करे ? भावार्थजब ध्येय और ध्यानी पृथक् पृथक् है तो चित्तको क्षोभ अवश्य होगा ॥ १७ ॥ इसका समाधान इसप्रकार है:
विवेच्य तद्गुणग्रामं तत्स्वरूपं निरूप्य च।
अनन्यशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ॥ १८॥ - अर्थ-प्रथम तो उस परमात्माके गुणसमूहोंको पृथक् २ विचार और फिर उन गुणोंके समुदायरूप परमात्माको गुणगुणीके अभिन्न भावसे विचार और फिर किसी अन्यके शरणसे रहित होकर, ज्ञानी पुरुष उसी परमात्मामें लीन हो जावे । भावार्थइस ध्यानमें प्रथम तो गुण और गुणीका पृथक्रूपसे विहार है परन्तु अन्तमें परमात्मामें लीन होनेसे ध्येय और ध्यानी पृथक् रूप न रहेंगे ॥ १८ ॥
तद्गुणग्रामसम्पूर्ण तत्स्वभावैकभावितः।
कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ॥ १९॥ अर्थ-परमात्माके खभावसे एकरूप भावित अर्थात् मिला हुआ ध्यानी मुनि उस परमात्माके गुणसमूहोंसे पूर्णरूप अपने आत्माको करके, फिर उसे परमात्मामें योजन करै । ऐसा विधान है ॥ १९॥
योर्गुणैर्मतं साम्यं व्यक्तिशक्तिव्यपेक्षया। - विशुद्धतरयोः खात्मतत्वयोः परमागमे ॥२०॥ ___ अर्थ-परमागममें विशुद्ध अर्थात् कर्मरहित और उससे इतर अर्थात् कर्मसहित इन दोनों खात्मतत्त्वोंमें शक्ति और व्यक्तिकी अपेक्षासे गुणोंसे समानता मानी है। भावार्थ-जब शक्ति और व्यक्तिको भिन्न २ मानते हैं तब तो कर्मरहित विशुद्ध आत्मा व्यक्तिरूपसे परमात्मा है और कर्मसहित आत्मा शक्तिरूपसे परमात्मा है । और यदि शक्ति और व्यक्तिकों अभिन्न मानते हैं तो दोनों ही समान हैं ॥ २० ॥ अब शक्ति और व्यक्ति भिन्नाभिन्न माननेमें अविरोधका हेतु दिखलाते हैं
यः प्रमाणनयैनं स्वतत्वमववुद्ध्यते । वुद्ध्यते परमात्मानं स.योगी वीतविभ्रमः ॥ २१ ॥