________________
४००
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वजन्तं तालुरन्ध्रेण स्फुरन्तं भूलतान्तरे ।
ज्योतिर्मयमिवाचिन्त्यप्रभावं भावयेन्मुनिः ॥ ७० ॥ अर्थ-उपयुक्त मायाबीज ही अक्षरको स्फुरायमान होता हुआ, अत्यंत उज्वल प्रभामंडलके मध्य प्राप्त हुआ कभी पूर्वोक्त मुखस्य कमलमें संचरता हुआ तथा कभी २ उसकी कर्णिकाके उपरि तिष्ठता हुआ, तथा कभी २ उस कमलके आठों दलोंपर फिरता हुआ तथा कभी २ क्षणभरमें आकाशमें चलता हुआ, मनके अज्ञान अंधकारको दूर करता हुआ, अमृतमयी जलसे चूता हुआ तथा तालुआके छिद्रसे गमन करता हुआ तथा भौंहोंकी लताओंमें स्फुरायमान होता हुआ, ज्योतिर्मयके समान अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे मायावर्णका चिन्तवन करै ।। ६८ ॥ ६९ ॥ ७० ॥ अब इस मन्त्रकी महिमाका वर्णन करते हैं,
वाक्पथातीतमाहात्म्यं देवदैत्योरगार्चितम् । - विद्यार्णवमहापोतं विश्वतत्त्वप्रदीपकम् ॥ ७१ ॥
अर्थ-इस मन्त्रका माहात्म्य वचनातीत है-इसको देव दैत्य नागेन्द्र पूजते हैं तथा यह मन्त्र विद्यारूपी समुद्रके तिरनेको महान् जहाज है. और जगतके पदार्थों को दिखानेके लिये दीपक ही है ॥ ७१ ॥
अमुमेव महामन्त्रं भावयन्नस्तसंशयः।
अविद्याव्यालसंभूतं विषवेगं निरस्यति ॥७२॥ __ अर्थ-इसी महामन्त्रको संशयरहित होकर, ध्यान करनेवाला मुनि अविद्यारूपी सर्पसे उत्पन्न हुए विषके वेगको दूर करता है ।। ७२ ।।
इति ध्यायन्नसौ ध्यानी तत्संलीनैकमानसः।
वामनोमलमुत्सृज्य श्रुताम्भोधि विगाहते ॥७३॥ अर्थ-ऐसे पूर्वोक्त प्रकार इस मन्त्रको ध्यान करता हुआ और उस ध्यानमें ही लीन है मन जिसका ऐसा जो ध्यानी है वह अपने मन तथा वचनके मलकों नष्ट करके श्रुत समुद्रमें अवगाहन करता है-अर्थात् शास्त्ररूपी समुद्रमें तैरता है ॥ ७३ ॥
ततो निरन्तराभ्यासान्मासैः षभिः स्थिराशयः।
मुखरन्ध्राद्विनिर्यान्ती धूमवति प्रपश्यति ॥ ७४ ॥ । अर्थ-तत्पश्चात् वह ध्यानी स्थिरचित्त होकर, निरन्तर अभ्यास करनेपर छह महीने में ।' अपने मुखसे निकलती हुई (धूम) धूयेकी वर्तिका देखता,है ॥ ७४ ॥
ततः संवत्सरं यावत्तथैवाभ्यस्यते यदि । प्रपश्यति महाज्वालां निःसरन्ती मुखोदरात् ।। ७५ ॥