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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सन्मति सुगतं सिद्धं जगज्येष्ठं पितामहम् । महावीरं मुनिश्रेष्ठं पवित्रं परमाक्षरम् ॥ २९ ॥ सर्वज्ञं सर्वदं सार्व वर्धमान निरामयम् । नित्यमव्ययमव्यक्तं परिपूर्ण पुरातनम् ॥ ३०॥ इत्यादिसान्वयानेकपुण्यनामोपलक्षितम् ।
स्मर सर्वगतं देवं वीरमसरनायकम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-हे मुने, तू आगे लिखे हुए प्रकारसे सर्वज्ञ देवका सरण कर-कि जिस सर्वज्ञ देवके ज्ञानरूप निर्मल दर्पणके मंडलमें अनेक वस्तु. ओंसे भरा हुआ चराचर यह जगत प्रकाशमान है ॥ १४ ॥ तथा जिसका ज्ञान खभावहीसे उत्पन्न हुआ है, संशयादिक रहित है, निर्दोष है, सदाकाल उदयरूप है, तथा इन्द्रियोंका उल्लंघन करके प्रवर्त्तनेवाला है और लोकालोकमें सर्वत्र विस्तरता है ।। १५ ॥ तथा खद्योत(जुगुन)के समान जिसके विज्ञानरूप सूर्यकी प्रभासे पीडित हुये दुर्नए (एकान्त पक्ष ) क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं ॥ १६ ॥ तथा जिसने समस्त इंद्रोंकी सभाके स्थानको सिंहासनरूप किया है तथा योगीगणोंसे गम्य है, जगतका नाथ. है, गुणरूपी रत्नोंका महान् समूह है ॥ १७ ॥ तथा पवित्र किया है पृथिवीतल जिसने, तथा उद्धरण किया है तीन जगत जिसने ऐसा और मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाला है, अनन्त है और जिसका शासन पवित्र है ॥ १८ ॥ तथा जिसने भामंडलसे सूर्यको आच्छादित किया है, कोटि चंद्रमाकी समान प्रभाका धारक है, जो जीवोंको शरणभूत है, सर्वत्र जिसके ज्ञानकी गति हैं, शान्त है, दिव्यवाणीमें प्रवीण है ॥ १९ ॥ तथा इन्द्रियरूपी सोको गरूडसमान है, समस्त अभ्युदयका मंदिर है, तथा दुःखरूप समुद्रमें पड़ते हुए जीवोंको हस्तावलंबन देनेवाला है ॥ २० ॥ तथा सिंहासनपर स्थित है, कामरूप हस्तीका घातक है, तथा तीन चन्द्रमाकी समान मनोहर तीन छत्र सहित विराजमान है ॥ २१॥ तथा हंसपंक्तिके पड़नेकी लीलापूर्ण चमरोंके समूहसे वीजित है, तृष्णारहित है, जगतका नाथ है, वरका देनेवाला और विश्वरूपी है, अर्थात् ज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थों के रूप देखनेवाला है ॥ २२ ॥ तथा दिव्य पुष्पवृष्टि, आनक अर्थान् दुंदुभि वाजों तथा अशोक वृक्षोंसहित विराजमान है, तथा रागरहित (वीतराग ) है प्रातिहार्य महालक्ष्मीसे चिह्नित है, परमऐश्वर्यकरके सहित (परमेश्वर ) है ॥ २३ ॥ तथा अनंतज्ञान १, दर्शन २, दान ३, लाभ ४, भोग ५, उपभोग६, वीर्य ७, क्षायिकसम्यक्त्व ८, और चारित्र ९, इन नवलब्धिरूपी लक्ष्मीकी जिससे उत्पत्ति है, तथा अपने आत्मासे ही उत्पन्न है, और शुक्लध्यानरूपी महान् अनिमें होम दिया है कर्मरूपी इन्धनका समूह जिसने ऐसा है ॥२४॥ तथा सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान