Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 440
________________ ४१६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रूप होता है तो चौदह भुवनोंको भी ( लोकोंको भी ) चला देता है भावार्थआत्माकी अचिन्त्य सामर्थ्य है कि जो आप सर्वज्ञके ध्यानसे तन्मय होता है तो सर्वदा हो जाता है और किसी समय यदि क्रोधसे तन्मय हो जाय तो चौदह भुवनोको चला देता है ॥ ४५ ॥ स्रग्धरा । त्रैलोक्यानन्दवीजं जननजलनिधेर्यानपात्रं पवित्रं लोकालोकप्रदीपं स्फुरद्मलशरचन्द्रकोटिप्रभाव्यम् । कस्यामप्यग्रकोटौ जगदखिलमतिक्रम्य लब्धप्रतिष्ठं देवं विश्वैकनाथं शिवमजमनघं वीतरागं भजख ॥ ४६ ॥ अर्थ — हे मुने, तू वीतराग देवका ही ध्यान कर. कैसे हैं वीतराग भगवान् ! तीनो लोकोंके जीवोंको आनन्दके कारण हैं, संसाररूप समुद्रके पार होनेके लिये जहाज तुल्य हैं तथा पवित्र अर्थात् द्रव्यभाव मलसे रहित हैं तथा लोक अलोकके प्रकाश करनेके लिये दीपक के समान हैं और प्रकाशमान तथा निर्मल ऐसे जो करोड़ शरद के चंद्रमा उनकी प्रभासे भी अधिक प्रभाके धारक हैं तथा किसी मुख्य कोटिमें समस्त जगतका उल्लंघन कर पाई है प्रतिष्ठा जिन्होंने ऐसे हैं, जगतके अद्वितीय नाथ हैं, शिवस्वरूप हैं, अजन्मा हैं पापरहित हैं, ऐसे वीतराग भगवान् का ध्यान करो ॥ ४६ ॥ इस प्रकार रूपस्थ ध्यानका वर्णन किया । इसमें अरहंत सर्वज्ञ सर्व अतिशयों से पूर्णका ध्यान करना कहा है. उसीके अभ्याससे तन्मय होकर, उसके समान अपने आत्माको ध्यावना, जिससे वैसाही हो जाता है. इस प्रकार वर्णन किया । सोरठा । सर्वविभवजुत जान, जे ध्यावैं अरहंतकं । मन वसि करि सति मान, ते पावें तिस भावकुं ॥ ३९ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्य विरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे रूपस्थधर्मध्यानवर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशं प्रकरणम् ॥ ३९ ॥ (१) नरक ७, भवनवासी देखोका स्थान १, ज्योतिश्चक १, मध्यलोक १, सोलह स्वर्ग १, नवप्रेवेयक १, नव अनुदिश १, पंच अनुत्तर १ इस प्रकार चौदह भुवन हैं । अन्यमती चौदह भुवन अन्य प्रकार मानते हैं ।

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