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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पापों) को नष्ट करके शाश्वत मोक्षमार्गमें तिष्ठते हैं ॥ ३४ ॥ सो देवोंका देव, ईशान, भव्य जीवरूप कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये सूर्य समान ऐसा श्रीवीरजिनेन्द्र मनको निश्चल करके ध्यान करने योग्य (ध्येय ) है. अन्य कल्पित ध्येय (ध्यान करने योग्य) नहीं है ॥ ३५ ॥
तस्मिन्निरन्तराभ्यासवशात्संजातनिश्चलाः ।
सर्वावस्थासु पश्यन्ति तमेव परमेष्ठिनम् ॥ ३६॥ अर्थ-उस सर्वज्ञ देवके ध्यानमें सदा अभ्यास करनेके प्रभावसे निश्चल हुए योगीगण सर्व अवस्थाओंमें उसी परमेष्ठीको देखते हैं ॥ ३६॥
तदालम्ब्य परं ज्योतिस्तद्गुणग्रामरञ्जितः।।
अवक्षिप्तमना योगी तत्खरूपमुपाभुते ॥ ३७॥ अर्थ-योगी (ध्यानी मुनि) उस सर्वज्ञ देव परमज्योतिको आलंबन करके उसके गुणग्रामोंमें रंजायमान होता हुआ मनमें विक्षेपरहित होकर, उसी खरूपको प्राप्त होता है ॥ ३७॥
इत्थं तद्भावनानन्दसुधास्यन्दाभिनन्दितः।
न हि खप्नाद्यवस्थासु ध्यायन्प्रच्यवते मुनिः ॥ ३८ ॥ ___ अर्थ-इस प्रकार उस सर्वज्ञ देवकी भावनासे उत्पन्न हुए आनंदरूप अमृतके प्रवाहसे आनंदरूप हुआ मुनि खप्मादिक अवस्थामोंमें भी ध्यानसे च्युत नहीं होता ॥ ३८ ॥ अथवा इस प्रकार है
तस्य लोकत्रयैश्वयं ज्ञानराज्यं खभावजम् ।
ज्ञानत्रयजुषां मन्ये योगिनामप्यगोचरम् ॥ ३९ ॥ अर्थ-जो उस सर्वज्ञ देवके तीन लोकका ईश्वरत्व है खभावसे उत्पन्न ज्ञानका राज्य है वह मति श्रुत अवधि इन तीन ज्ञानसहित योगी मुनियोंके भी अगोचर है ऐसा मैं मानता हूं ॥ ३९॥ परन्तु कुछ विशेष है सो कहते हैं,
साक्षानिर्विषयं कृत्वा साक्षं चेतः सुसंयमी।
नियोजयत्यविश्रान्तं तस्मिन्नेव जगद्गुरौ ॥ ४०॥ अर्थ-यद्यपि सर्वज्ञ देवका रूप छद्मस्य ज्ञानीके अगोचर है तथापि इन्द्रिय और मनको अन्य विषयोंसे हटाकर, 'सुसंयमी मुनि निरन्तर साक्षात् उसी भगवान्के खरूपमें अपने मनको लगाता है ॥ ४० ॥