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ज्ञानार्णवः ।
अथ चत्वारिंशं प्रकरणम् ।
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इस प्रकरणमें रूपातीत ध्यानका वर्णन करते हैं. सो, प्रथम ही असमीचीन ध्यानका निषेध करते हैं, -
वीतरागं स्मरन्योगी वीतरागो विमुच्यते । रागी सरागमालव्य क्रूरकर्माश्रितो भवेत् ॥ १ ॥
अर्थ- - ध्यान करनेवाला योगी वीतरागका ध्यान करता हुआ वीतराग होकर, कमसे छूट जाता है । और रागीको अवलंबन करके, ध्यान करनेसे रागी होकर, कर्मोके आश्रित हो जाता है अर्थात् अशुभ कर्मो से बँध जाता है ॥ १ ॥
क्रूर
मत्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगैर्ध्यातुमुद्यतः । सुरासुरनरनातं क्षोभयत्यखिलं क्षणात् ॥ २ ॥
अर्थ --- यदि ध्यानी मुनि मन्त्र, मंडल, मुद्रादि प्रयोगोंसे ध्यान करनेमें उद्यत हो तो समस्त सुर, अमुर और मनुष्योंके समूहको क्षणमात्रमें क्षोमित करसकता है ॥ २ ॥ क्रुद्धस्याप्यस्य सामर्थ्यमचिन्त्यं त्रिदशैरपि ।
अनेकविक्रियासारध्यानमार्गावलम्बिनः ॥ ३ ॥
अर्थ — अनेक प्रकारकी विक्रियारूप असार ध्यानमार्गको अवलंबन करनेवाले क्रोधीके भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिसका देव भी चिन्तवन नहिं कर सकते ॥ ३ ॥
उपजातिः ।
बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैविद्यानुवादात्प्रकटीकृतानि । असंख्य भेदानि कुतूहलार्थं कुमार्गकुध्यानगतानि सन्ति ॥ ४ ॥ अर्थ-ज्ञानी मुनियोंने विद्यानुवादपूर्व से असंख्य भेदवाले अनेक प्रकारके विद्वेषण उच्चाटन आदि कर्म कौतूहलके लिये प्रकट किये हैं । परन्तु वे सब कुमार्ग और कुध्यानके अन्तर्गत हैं ॥ ४ ॥
उपेन्द्रवज्रा । असावनन्तप्रथितप्रभावः स्वभावतो यद्यपि यन्त्रनाथः ।
नियुज्यमानः स पुनः समाधौ करोति विश्वं चरणाग्रलीनम् ॥५॥ अर्थ-यद्यपि यह आत्मा खभावसे ही अनन्त और जगप्रसिद्ध प्रभावका धारक है फिर समाधिमें ( ध्यानमें ) जोड़ा हुआ हो तो यह समस्त जगतको अपने चरणोंमें लीन कर लेता हैं ॥ ५ ॥
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