Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 434
________________ ४१० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् धीर अर्थात् क्षोभरहित, निर्मल ज्ञान ही जिनके नेत्र हैं ऐसे, देव और योगीश्वरोंकी कल्पनासे अतीत है विभव जिनका ऐसे ॥ ६ तथा स्याद्वादरूप वज्रसे खंडे हैं अन्य मतरूपी पर्वत जिन्होंने ऐसे, तथा ज्ञानरूप अमृतमय जलके प्रवाहोंसे पवित्र खरूप किया है, तीन जगत् जिन्होंने ऐसे ॥ ७ ॥ इनको आदि लेकर गणनासे अतीत गुणरूप रनोंके महासमुद्र, देवोंके देव, खयंबुद्ध, जिनोंके सूर्य, ऐसे श्रीऋपभदेव सर्वज्ञका हे मुने, तू चिन्तवन (ध्यान) कर ॥ ८ ॥ जन्ममृत्युजराक्रान्तं रागादिविषमूछितम् । सर्वसाधारणैर्दोषैरष्टादशभिरावृतम् ॥ ९॥ अनेकव्यसनोच्छिष्टं संयमज्ञानविच्युतम् । संज्ञामात्रेण केचिच्च सर्व प्रतिपेदिरे ॥ १० ॥ अर्थ-कई अन्यमती जन्म जरा मरणसे व्याप्त, रागद्वेषादि विपसे मूर्छित, सर्व साधारण मनुष्यके समान क्षुधा तृपा आदि १८ दोपोंसे आच्छादित ॥ ९॥ तथा अनेक व्यसनों (कष्ट आपदाओं )कर सहित, संयम और ज्ञानसे रहित, ऐसे आत्माको नाममात्रसे सर्वज्ञ मानते हैं ॥ १० ॥ इतरोऽपि नरः षभिः प्रमाणैर्वस्तुसंचयम् । परिच्छिन्दन्मतः कैश्चित्सर्वज्ञः सोऽपि नेक्षते ॥ ११॥ अर्थ-तथा कई प्रत्यक्ष १ अनुमान २ उपमान ३ आगम ४ अर्थापत्ति ५ और अभाव ६ इन छे प्रमाणोंसे वस्तुके समूहको जानते हुए अन्य पुरुषको भी सर्वज्ञ माना है सो वह भी सर्वज्ञ नहीं है ॥ ११ ॥ इस कारण आचार्य महाराज कहते हैं, अतः सम्यक्स विज्ञेयः परित्यज्यान्यशासनम् । युत्त्यागमविभागेन ध्यातुकामैर्मनीषिभिः॥१२॥ अर्थ-इस कारण जो सर्वज्ञ भगवान्का ध्यान करनेके इच्छक बुद्धिमान् पुरुष हैं उनको चाहिये कि अन्य मतोंको छोड़कर, युक्ति और आगमसे निर्णय करके, सर्वज्ञको सम्यक् प्रकारसे निश्चय करें ॥ १२ ॥ युक्त्या वृषभसेनाद्यैर्नि यासाधुवल्गितम् । यस्य सिद्धिः सतां मध्ये लिखिता चन्द्रमण्डले ॥ १३ ॥ अर्थ-जिस सर्वज्ञकी सिद्धि वृषभसेन आदि गणधर और आचार्योने युक्तिसे असाधु दुर्जनोंके कथनका खंडन करके, सत्पुरुषोंके बीचमें निर्मल चन्द्रमण्डलमें लिखी

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