________________
ज्ञानार्णवः। अथ एकोनत्रिंशं प्रकरणं लिख्यते । आगे रूपस्य ध्यानका वर्णन करते हैं,
आहत्यमहिमोपेतं सर्वशं परमेश्वरम् । ध्यायेदेवेन्द्रचन्द्रार्कसभान्तस्थं स्वयम्भुवम् ।। १ ।। सर्वातिशयसंपूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् । सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेन्द्रशेखरम् ॥ २॥ सप्तधातुविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मीकटाक्षितम् । अनन्तमहिमाधारं सयोगिपरमेश्वरम् ॥ ३ ॥ अचिन्त्यचरितं चारुचारित्रैः समुपासितम् । विचित्रनयलिणीतं विश्वं विश्वैकवान्धवम् ॥ ४॥ निरुद्धकरणग्रामं निपिद्धविपयद्विपम् । ध्वस्तरागादिसन्तानं भवज्वलनवार्मुचम् ॥५॥ दिव्यरूपधरं धीरं विशुद्धज्ञानलोचनम् । अपि निदशयोगीन्द्रः कल्पनातीतवैभवम् ॥६॥ स्यादादपविनिघाँतभिन्नान्यमतभूधरम् । ज्ञानामृतपयःपूरैः पचित्रितजगत्त्रयम् ॥७॥ इत्यादिगणनातीतगुणरत्नमहार्णवम् ।
देवदेवं स्वयम्वुद्धं स्मराचं जिनभास्करम् ॥ ८॥ अर्थ-इस रूपस्य ध्यानमें अरहन्त भगवान्का ध्यान करना चाहिये जिसमें अरहतका किस प्रकारका खरूप चिन्तवन करना चाहिये सो कहते हैं, अरहन्तताकी महिमा जो समवसरणादिकी रचना है उस सहित, सर्वज्ञ, परमेश्वर, देवेन्द्र चन्द्रमा सूर्यादिकी सभाके मध्यमें स्थित, स्वयंभू ॥१॥ तथा समस्त अतिशयोंसे संपूर्ण, सब लक्षणोंसे लक्षित, तथा जिनसे समस्त जीवोंका हित होता है ऐसे, और शील कहिये उत्तर गुणरूपी पर्वतके शिखर ॥ २ ॥ तथा सप्तधातुसे रहित, और मोक्षलक्ष्मी जिनको कटाक्षपूर्वक देखती है ऐसे, अनन्त महिमाके आधार सयोगकेवली, परमेश्वर, ॥ ३ ॥ तथा अचिन्त्य है चरित जिनका, और सुन्दर चरित्रवाले गणधरादिक मुनिगणोंसे सेवनीय तथा अनेक नयोंसे निर्णय किया है विश्व अर्थात् समस्त वस्तुओंका आकार स्वरूप जगत् जिन्होंने ऐसे, और समस्त जगत्के हितू ॥ ४ ॥ तथा इन्द्रियोंके ग्रामोंको रोकनेवाले, विषयरूप शत्रुओंको निषेध कर देनेवाले तथा रागादिक सन्तानका करदिया है नाश जिन्होंने ऐसे, और संसाररूपी अनिके वुझानेको मेघके समान ॥ ५ ॥ तथा दिव्यरूपके धारक