Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 431
________________ ज्ञानार्णवः । १०७ अर्थ-अन्य जो जो द्वादशांग शान्तके वीजाक्षर हैं तथा वैराग्यके कारण हैं उन उन मंत्रोंको ध्यान करता हुआ मुनि मोक्षमार्गमें गमन करता हुआ डिगता नहीं। भावार्थ-जो ज्ञान वैराग्यके कारण मंत्र पद वा वीजाक्षर हैं वे सब ही मोक्षमार्गमें ध्यान करने योग्य (ध्येय ) हैं ।। ११३ ॥ ध्येयं स्याद्वीतरागस्य विश्ववर्त्यर्थसंचयम् । तद्धर्मव्यत्ययाभावान्माध्यस्थ्यमधितिष्ठतः ॥१॥ अर्थ-जो वीतराग है उसके इस लोकम प्रवर्त्तनेवाले समस्त पदार्थोके समूह ध्येय हैं, क्योंकि, वीतराग उस पदार्थके स्वरूपमें विपरीतताके अभावसे मध्यस्थताको आश्रय करता है । भावार्थ-वीतरागके ज्ञानमें जो ज्ञेय आता है, उसका स्वरूप यथार्थ जाननेके कारण उसके इष्ट अनिष्ट ममत्वभाव नहीं होते. इस कारण उसमें मध्यस्थ भाव रहता है, अर्थात् वीतरागतासे नहीं छूटते ।। १ ॥ पुनः उक्तं च । वीतरागो भवेद्योगी यत्किञ्चिदपि चिन्तयेत्। तदेव ध्यानमानातमतोऽन्यद् अन्धविस्तरः ॥२॥ अर्थ-वीतराग योगी जो कुछ चितवन करै वही ध्यान है, इस कारण अन्य कहना है वह ग्रन्थका विस्तार मात्र है, वीतरागकं सब ही ध्येय हैं ॥ २ ॥ वीतरागस्य विज्ञेया ध्यानसिध्रुिवं मुने। क्लेश एव तदर्थ स्याद्रागातस्येह देहिनः ॥ ११४ ॥ अर्थ-जो मुनि वीतराग है उनके ध्यानकी सिद्धि अवश्य होता है. और जो रागसे पीड़ित है उसका ध्यान करना क्लेशके लिये ही है अर्थात् रागीके ध्यानकी सिद्धि नहिं होती ॥ ११ ॥ ___ यहां कोई प्रश्न करै कि सर्वथा वीतराग तो सर्व मोहका अभाव होनेसे होता है उसके ध्यान करनेकी इच्छा ही नहीं होती और जो इच्छा होती है तो वह वीतराग कैसे हो? उसका समाधान-यह है कि यहांपर राग संसार देह भोगसंवन्धी है, उसकी अपेक्षा वीतराग कहा है. ध्यानसे राग करनेको राग नहीं कहा जाता. क्योंकि, ध्यान रागका अभाव करनेवाला है । इस रागमे भी मुनिके राग नहीं है इसकारण वीतराग ही कहा जाता है । परमार्थ अपेक्षा यह एकदेश सर्वदेशका व्यवहार जानना ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ।। निर्मथ्य श्रुतसिन्धुमुन्नतधियः श्रीवीरचन्द्रोदये तत्त्वान्येव समुद्धरन्ति मुनयो यत्नेन रत्नान्यतः ।

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