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ज्ञानार्णवः।
४०५ आलम्ब्य प्रक्रियामेनां पूर्व विघ्नोपशान्तये। पश्चात्सप्ताक्षरं मन्नं ध्यायेत्प्रणववर्जितम् ॥ १०१॥ मन्त्रः प्रणवपूर्वोऽयं निश्शेषाभीष्टसिद्धिदः ।
ऐहिकानेककामार्थ मुक्त्यर्थं प्रणवच्युतः॥ १०२॥ अर्थ-तत्पश्चात् पूर्वोक्त आठ रात्रियोंके व्यतीत होने के पश्चात् इस कमलके पत्रोंपरवर्तनवाले अक्षरोंको अनुक्रमसे निरूपण करके देखे ॥ १०० ॥ इस प्रकार इस प्रक्रियाको प्रथम विघ्नके समूहकी शान्तिके लिये आलंबन करके, तत्पश्चात् प्रणववर्जित सात अक्षरस्वरूप "णमो अरहंताणं" इस मन्त्रका ध्यान करै ॥ १०१ ॥ जब इस मन्त्रको प्रणवपूर्वक ध्यावै तब यह समस्तमनोवांछित सिद्धिका देनेवाला है तथा इस लोकसम्बन्धी अनेक कार्योंके लिये है और प्रणववर्जित ध्यान करनेसे यह मन्त्र मुक्तिका कारण है ॥ १०२ ॥
स्सर मन्त्रपदं वान्यजन्मसंघातघातकम् ।
रागााग्रतमस्तोमप्रध्वंसरविमण्डलम् ॥ १०३।। अर्थ-अव कहते हैं कि हे मुने, तू अन्य एक मन्त्रपदका स्मरण कर. क्योंकि, वह मन्त्र जन्मसमूहको घात करनेवाला है और रागादिकरूप तीव्र अंधकारको नष्ट करनेके लिये सूर्यमंडल समान है. वह मंत्र "श्रीमद्वपमादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नमः" ऐसा है ।
मनः कृत्वा सुनिष्कम्पं तां विद्यां पापभक्षिणीम् ।।
स्मर सत्त्वोपकाराय या जिनेन्द्रः प्रकीर्तिता ॥ १०४ ।। अर्थ-तत्पश्चात् हे मुने, तू निश्चलमनसे उस पापमक्षिणी विद्याको स्मरण कर जिसको कि समस्त जीवोंके उपकारार्थ श्रीजिनेन्द्र भगवान्ने कही है. वह विद्या यह है-ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकरि श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरखति मत्पापं हन हन दह दह क्षांक्षी झू क्षों क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे वं वं हूं हूं स्वाहा । ये पापभक्षिणी विद्याके अक्षर हैं ।। १०४ ॥
चेतः प्रसत्तिमाधत्ते पापपङ्कः प्रलीयते ।
आविर्भवति विज्ञानं मुनेरस्याः प्रभावतः ।। १०५॥ अर्थ-इस पापभक्षिणी विद्याके प्रभावसे मुनिका चित्त प्रसन्नताको धारण करता है, पापरूपी पंक प्रलय हो जाता है और विशिष्ट ज्ञान प्रगट होता है ॥ १०५ ॥
मुनिभिः संजयन्तायैर्विद्यावादात्समुद्धृतम् । भुक्तिमुक्तेः परं धाम सिद्धचक्राभिधं स्मरेत् ॥ १०६ ।। तस्य प्रयोजक शास्त्रं तदाश्रित्योपदेशतः । ध्येयं मुनीश्वरैर्जन्ममहाव्यसनशान्तये ॥ १०७॥