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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-तत्पश्चात् सिद्धचक्र नामा मंत्रको संजयन्तादिक महामुनियोंने विद्यानुवाद नामा दशम पूर्वसे उद्धृत किया है-सो यह मन्त्र भोग और मोक्षका उत्कृष्ट धाम है, इसका ध्यान करै ॥ १०६ ॥ इस सिद्धचक्र मन्त्रके प्रयोजक शास्त्रका आश्रय लेकर, उसके उपदेशसे जन्मरूप महाकष्टकी शान्तिके लिये मुनीश्वरोंको ध्यान करना चाहिये. इसके अक्षरादिकका विधान उसके प्रयोजक शास्त्रसे जानना ॥ १०७ ॥
स्मर मन्त्रपदाधीशं मुक्तिमार्गप्रदीपकम् । नाभिपङ्कजसंलीनमवण विश्वतोमुखम् ॥ १०८॥ सिवर्ण भस्तकाम्भोजे साकारं मुखपङ्कजे ।
आकारं कण्ठकनस्थं स्मरोकारं हृदि स्थितम् ॥ १०९॥ । अर्थ-हे मुने! तू मन्त्रपदोंका खामी और मुक्तिके मार्गको प्रकाश करनेवाले अकार ; अक्षरको नाभिकमलमें चिन्तवन कर. यह अक्षर सर्वव्यापी है। और सि अक्षरको मस्तक । कमलपर, आ अक्षरको कंठस्थ कमलमें, उ अक्षरको हृदयकमलपर और सा अक्षरको 'मुखस्थ कमलपर ऐसे 'असिआउसा' इन पांच अक्षरोंको पांच स्थानोंपर चिन्तवन कर ॥ १०८ ॥ १०९॥
सर्वकल्याणबीजानि बीजान्यन्यान्यपि स्मरेत् ।
यान्याराध्य शिवं प्राप्ता योगिनः शीलसागराः ॥ ११०॥ . अर्थ-सर्व कल्याणके बीज अन्यान्य भी मंत्र हैं. जिनको आराधन करके शीलके सागर योगीगण मोक्षको प्राप्त हुए हैं. उन सवही अक्षरोंको ध्यानी मुनि चिन्तवन करै, 'नमः सर्वसिद्धेभ्यः' यह भी एक मन्त्रपद है ॥ ११० ॥
श्रुतसिन्धुसमुद्भूतमन्यदा पदमक्षरम् ।
तत्सर्वं मुनिभिध्येयं स्यात्पदस्थप्रसिद्धये ॥ १११ ॥ अर्थ-अन्य भी पद तथा अक्षर जो श्रुतसमुद्र द्वादशांग शास्त्रसे उत्पन्न हुए हैं वे सब ही पदस्थ ध्यानकी प्रसिद्धतार्थ होते हैं उन्हें भी मुनिगणोंको ध्यानगोचर करना चाहिये ॥ १११ ॥
एवं समस्तवर्णेषु मन्त्रविद्यापदेषु च । ___ कार्यक्रमेण विश्लेषो लक्ष्यभावप्रसिहये ॥ ११२॥
अर्थ- इस प्रकार समस्त अक्षरों में तथा मन्त्रपद और विद्या पदोंमें अनुक्रमसे लक्ष्य भावकी प्रसिद्धताके लिये भेद करना अर्थात् भिन्न २ चिन्तवन करना चाहिये ॥ ११२ ॥
अन्यद्यद्यच्छ्रुतस्कन्धधीजं निर्वेदकारणम् । तत्तद्ध्यायन्नसौ ध्यानी नापवर्गपथि स्खलेत् ॥ ११३ ॥