Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 422
________________ ३९८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अर्थ - जो संयमी मुनि एकाग्रबुद्धिसे मंगल, शरण, उत्तम इन पदोंके समूहको स्मरण करता है वह मोक्षलक्ष्मीका आश्रय करता है, वह मंगलकारक उत्तम पदका समूह यह हैं; -- चचारि मंगलं । अरहन्त मंगलं । सिद्ध मंगलं । साहु मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा । अरहंत लोगुत्तमा । सिद्ध लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्त्रजामि । अरहंत सरणं पव्वज्जामि । सिद्धसरणं पव्वज्जामि । साहुसरणं पव्वज्जामि । केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ॥ ५७ ॥ सिद्धेः सौध समारोहमियं सोपानमालिका । त्रयोदशाक्षरोत्पन्ना विद्या विश्वातिशायिनी ॥ ५८ ॥ अर्थ — और जगत् में अतिशयरूप तेरह अक्षरोंसे उत्पन्न हुई यह विद्या मोक्षके महलको चढ़नेके लिये सीढ़ियोंकी पंक्ति है वह १३ तेरह अक्षरका मन्त्र 'ॐ अर्हत् सिद्ध सयोThaली स्वाहा' इस प्रकार है ॥ ५८ ॥ प्रसादयितुमुद्युक्तैर्मुक्तिकान्तां यशस्विनीम् । दूतिकेयं मता मन्ये जगद्वन्द्यैर्मुनीश्वरैः ॥ ५९ ॥ अर्थ-यशकी धारक मुक्तिरूपी स्त्रीको प्रसन्न करनेके लिये उद्यमी हुए ऐसे तथा जगत्से पूज्य मुनीश्वरोंने इस तेरह अक्षरी विद्याको मुक्तिको प्रसन्न करनेके अर्थ दूती माना है, ऐसा मैं मानता हूं ॥ ५९ ॥ • सकलज्ञानसाम्राज्यदानदक्षं विचिन्तय । मन्त्रं जगत्रयी - नाथ- चूडारत्नं कृपास्पदम् ॥ ६० ॥ अर्थ - यह मन्त्र सकल ज्ञानके साम्राज्यके ( केवल ज्ञानके) देनेमें प्रवीण है और जगत्रयके नाथके चूड़ारल समान है तथा कृपाका स्थान है. सो हे मुने, तू चिन्तवन कर वह मन्त्र - - ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह नमः' ॥ ६० ॥ नचास्य भुवने कश्चित्प्रभावं गदितुं क्षमः । श्रीमत्सर्वज्ञदेवेन यः साम्यमवलम्बते ॥ ६१ ॥ अर्थ - इस मन्त्रका प्रभाव लोकमें कोई भी कहनेको समर्थ नहीं है. क्योंकि, यह मन्त्र श्रीमत्सर्वज्ञ देवकी समानताको धारण करनेवाला है ॥ ६१ ॥ स्मर कर्मकलङ्कौघध्वान्तविध्वंस भास्करम् । पञ्चवर्णमयं मन्त्रं पवित्रं पुण्यशासनम् ॥ ६२ ॥ अर्थ – हे मुने, तू पंच अक्षरमयी जो मन्त्र है उसे चिन्तवन कर. क्योंकि, यह मंत्र कर्मकलंकोंके समूहरूप अंधकारका विध्वंसन करनेको सूर्यके समान हैं पवित्र है, और पुण्यशासन है, वह मन्त्र 'नमो सिद्धाणं' यह है ॥ ६२ ॥

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