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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। अर्थ-आपदा अर्थात् कष्ट ही है पातालगत जिसमें ऐसे संसाररूपी समुद्रमें श्रमते हुए इस जगतको इस मन्नने ही उद्धार करके मोक्षमें धारण किया है ।। ४५ ॥
कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च ।
अमुं मन समाराध्य तियञ्चोऽपि दिवं गताः ॥ ४६॥ अर्थ-पूर्व कालमें हजारों पाप करके तथा सैंकड़ों जीवोंको मारकर तिर्यश्च भी इस महामंत्रको शुद्ध भावोंसे आराधन करके, खर्गको प्राप्त हुए हैं. उनकी कथा पुराणोंमें प्रसिद्ध है ॥ ४६॥
शतमष्टोत्तरं चास्य त्रिशुद्ध्या चिन्तयन्मुनिः। . भुञ्जानोऽपि चतुर्थस्य प्राप्नोत्यविकलं फलम् ॥ ४७॥ अर्थ-मन बचन कायको शुद्ध करके इस मन्त्रको एकसो आठबार चिन्तवन करै तो बह मुनि आहार करता हुआ भी चतुर्थ कहिये एक उपवासके पूर्ण फलको प्राप्त होता है ॥ ४७॥
इस प्रकार महामन्त्रके विधान, फल और महिमाका वर्णन किया । अव षोडशाक्षरी विद्याको कहते हैं,
स्मर पश्चपदोद्भूतां महाविद्यां जगन्नुताम् । - गुरुपञ्चकनामोत्थां षोडशाक्षरराजिताम् ॥४८॥ अर्थ-हे मुने, तू सोलह अक्षरोंसे विराजमान जो महाविद्या है उसका स्मरण कर अर्थात् ध्यान कर. क्योंकि षोडशाक्षरी विद्या पञ्च पदों और पंच परमगुरुके नामोंसे उत्पन्न हुई है और जगतमात्रसे नमस्कार करने योग्य है. वह सोलह अक्षरीविद्या यह है-"अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः ॥ १८ ॥ ___ अस्याः शतद्वयं ध्यानी जपन्नेकाग्रमानसः।
अनिच्छन्नप्यवाप्नोति चतुर्थतपसः फलम् ॥ ४९॥ अर्थ-जो जीव षोडशाक्षरी विद्याका एकाग्र मन होकर, दोसौ बार जप करता है वह नहीं चाहता हुआ भी चतुर्थ तप अर्थात् एक उपवासके फलको प्राप्त होता है ॥४९॥
विद्यां षडर्णसम्भूतामजय्यां पुण्यशालिनीम् ।।
जपन्प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ॥५०॥ अर्थ-तथा “अरहन्त सिद्ध" इस प्रकार छह अक्षरोंसे उत्पन्न हुई विद्याका तीनसौ बार जप करनेवाला मनुष्य एक उपवासके फलको प्राप्त होता है. क्योंकि, यह षडक्षरी विद्या अजय्य है और पुण्यको उत्पन्न करनेवाली तथा पुण्यसे शोमित है ॥५०॥
चतुर्वर्णमयं मन्त्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतुःशतं जपन्योगी चतुर्थस्य फलं लभेत् ॥५१॥