________________
ज्ञानार्णवः । दिग्दलेषु ततोऽन्येषु विदिपत्रेष्वनुक्रमात् ।
सिद्धादिकं चतुष्कं च दृष्टिवोधादिकं तथा ॥ ४० ॥ अर्थ-स्फुरायमान निर्मल चन्द्रमाकी कान्तिसमान आठ पत्रसें शोभित जो कमल / है उसकी कर्णिकापर स्थित सात अक्षरके "णमो अरहताणं". मंत्रका चिन्तवन करै ॥ ३९ ॥ और उस कर्णिकासे बाहरके आठ पत्रोंमेंसे ४ दिशाओंके ४ दलोंपर "णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, ये ४ मंत्रपद और विदिशाओंके चार पत्रोंपर सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः, सम्यक्तपसे नमः, इन चार नमस्कार मंत्रोंका चिन्तवन करै । इस प्रकार अष्टदलका कमल और एक कर्णिकामें नव मंत्रोंकों स्थापन कर चिन्तवन करै ॥ ४० ॥
श्रियमात्यन्तिकी प्राप्ता योगिनो येऽत्र केचन।
अमुमेव महामन्त्रं ते समाराध्य केवलम् ॥ ४१ ॥ अर्थ-इस लोकमें जिन कितने ही योगियोंने आत्यन्तिकी लक्ष्मीको (मोक्षलक्ष्मीकों) प्राप्त किया है उन सोंने एकमात्र इस महामन्त्रको आराधन करके ही प्राप्त किया है ।।
प्रभावमस्य निःशेषं योगिनामप्यगोचरम् ।
अनभिज्ञो जनो ब्रूते यः स मन्येऽनिलार्दितः ॥४२॥ अर्थ-इस महामन्त्रका पूर्ण प्रभाव योगी मुनीश्वरोंके भी अगोचर है. उनके द्वारा भी कहनेमें नहीं आता और जो इसको नहीं जाननेवाला पुरुप इसके प्रभावको कहता है उसको मैं वायु रोगसे प्रलाप करनेवाला मानता हूं ॥ ४२ ॥
__ अनेनैव विशुद्ध्यन्ति जन्तवः पापपङ्किताः। __ अनेनैव विमुच्यन्ते भवक्लेशान्मनीषिणः ॥ ४३ ॥ अर्थ-जो जीव पापसे मलिन हैं वे इसी मनसे विशुद्ध होते हैं और इसी मनके प्रभावसे मनीषिगण (बुद्धिमान् ) संसारके क्लेशोंसे छूटते हैं ॥ ४३ ॥
असावेव जगत्यस्मिन्मव्यव्यसनबान्धवः ।
अमुं विहाय सत्त्वानां नान्यः कश्चित्कृपापरः ॥ ४४ ॥ अर्थ-भव्य जीवोंको आपदाके समय. यही मन्त्र इस जगतमें बांधव (मित्र) है इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी जीवोंपर कृपा करनेमें तत्पर नहीं है । भावार्थ-सबका रक्षक यही एक महामन्त्र है ॥ ४४ ॥
एतद्यसनपाताले भ्रमत्संसारसागरे ।
अनेनैव जगत्सर्वमुद्धृत्य विधृतं शिवे ॥.४५ ॥ 'पापशङ्किता' इत्यपि पाठः। २ 'कृपाकरः' इत्यपि पाठः ।