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ज्ञानार्णवः ।
३९३ सिद्ध्यन्ति सिद्धयः सर्वा अणिमाद्या न संशयः ।
सेवां कुर्वन्ति दैत्याद्या आज्ञेश्वर्यं च जायते ।। २७ ।। अर्थ-इस अनाहत मंत्रके ध्यानसे ध्यानीके अणिमा आदि सर्व सिद्धियें होती हैं और दैत्यादिक सेवा करते हैं तथा आज्ञा और ऐश्वर्य होता है इसमें संदेह नहीं है ॥२७॥
क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः ।
धतोऽस्य स्फुरत्यन्तज्योतिरत्यक्षमक्षयम् ॥ २८॥ अर्थ-तत्पश्चात् क्रमसे लक्ष्योंसे (लखने योग्य वस्तुओंसे) छुड़ाकर, अलक्ष्यमें अपने मनको धारण करते हुए ध्यानीके अन्तरंगमें अक्षय तथा इंद्रियोंके अगोचर ज्योति अर्थात् ज्ञान प्रकट होता है ॥ २८ ॥
इति लक्ष्यानुसारेण लक्ष्याभावः प्रकीर्तितः। __ तस्मिन्स्थितस्य मन्येऽहं सुनेः सिद्धं समीहितम् ॥ २९ ॥
अर्थ-इस प्रकार लक्ष्यके अनुसार लक्ष्यका अभाव कहा गया. सो, आचार्य महाराज उत्प्रेक्षासे कहते हैं कि उस अलक्ष्यमें स्थिर रहनेवाले मुनिके वांछित कार्यको मैं सिद्ध हुआ मानता हूं ॥ २९॥
एतत्तत्त्वं शिवाख्यं वा समालम्व्य मनीषिणः ।
उत्तीर्णा जन्मकान्तारमनन्तं क्लेशसंकुलम् ॥ ३०॥ अर्थ-इस अनाहत तत्त्व अथवा शिवनामा तत्त्वको अवलंबन करके मनीषीगण अनन्तक्लेशसहित संसाररूपी वनसे पार हो गये । इसप्रकार मंत्रराज और अनाहत दोनों मंत्रोंके ध्यानका विधान कहा ॥ ३० ॥ अव प्रणव मन्त्रके (ओंकारके ) ध्यानका विधान कहते हैं,
स्मर दुःखानलज्वाला-प्रशान्तेनैवनीरदम् ।
प्रणवं वाङ्मयज्ञानप्रदीपं पुण्यशासनम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-हे मुने तू प्रणव नामा अक्षरका सरण कर अर्थात् ध्यान कर. क्योंकि, यह प्रणव नामा अक्षर दुःखरूपी अग्निकी...ज्वालाको-शान्त करनेके लिये मेघकी समान है तथा वाङ्मयके (समस्तश्रुतके) प्रकाश करनेके लिये दीपक है और पुण्यका शासन है ॥३१॥
यस्माच्छब्दात्मकं ज्योतिः प्रसूतमतिनिर्मलम् ।
वाच्यवाचकसंवन्धस्तेनैव परमेष्ठिनः ॥ ३२ ॥ अर्थ-इस प्रणवसे अतिनिर्मल शब्दरूप ज्योति अर्थात् ज्ञान उत्पन्न हुआ है और परमेष्ठीका वाच्य वाचक संबंध भी इसी प्रणवसे होता है अर्थात् परमेष्ठी तो इस प्रणवका वाच्य और यह परमेष्ठीका वाचक है ॥ ३२ ॥