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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्,
सर्वावयवसंपूर्ण ततोऽवयवविच्युतम् ।
क्रमेण चिन्तयेद्ध्यानी वर्णमात्रं शशिप्रभम् ॥ २ ॥
अर्थ - प्रथम तो ध्यानी अर्ह अक्षरका पूर्वोक्त समस्त अवयवोंसहित चिन्तवन करे - तत्पश्चात् अवयवरहित ध्यान करे फिर क्रमसे चन्द्रमासमान प्रभावाला वर्णमात्र (हकार ) स्वरूप चिन्तवन करै ॥ २॥
बिन्दुहीनं कलाहीनं रेफब्तियवर्जितम् । अनक्षरत्वमापन्नमनुच्चार्य च चिन्तयेत् ॥ ३ ॥
अर्थ -- तत्पश्चात् इस मंत्रराजका बिन्दु ( अनुखार) रहित, कला (अर्द्धचन्द्राकार) रहित, दोनों रेफ (इ) रहित, अक्षर रहितताको प्राप्त तथा उच्चारण करने योग्य न हो ऐसा क्रमसे चिन्तवन करै ॥ ३ ॥
चन्द्रलेखासमं सूक्ष्मं स्फुरन्तं भानुभाखरम् । अनाहताभिधं देवं दिव्यरूपं विचिन्तयेत् ॥ २३ ॥
अर्थ - चन्द्रमा की रेखा समान सूक्ष्म और सूर्य सरीखा देदीप्यमान, स्फुरायमान होता हुआ तथा दिव्य रूपका धारक ऐसा जो अनाहत नामका देव है उसका चिन्तवन कैरे ॥ २३ ॥
अस्मिन्स्थिरीकृताभ्यासाः सन्तः शान्ति समाश्रिताः । अनेन दिव्यपोतेन तीर्त्वा जन्मोग्रसागरम् ॥ २४ ॥
अर्थ - इस अनाहत नामा देवमं किया है स्थिर अभ्यास जिन्होंने ऐसे सत्पुरुष इस दिव्य जहाजके द्वारा संसाररूप घोर समुद्रको तिरकर, शान्तिको प्राप्त होगये हैं ॥ २४ ॥ फिर इसका चिंतन अन्य प्रकारसे कहते हैं,
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तदेव च पुनः सूक्ष्मं क्रमाद्वालाग्रसन्निभम् ।
ध्यायेदेकाग्रतां प्राप्य कर्तुं चेतः सुनिश्चलम् ॥ २५ ॥
अर्थ — और फिर एकाग्रताको प्राप्त होकर चित्तको स्थिर (निश्चल) करनेके लिये उसही अनाहतको अनुक्रमसे सूक्ष्म ध्याता हुआ बालके अग्रभाग समान ध्यावै ॥ २५ ॥ ततोऽपि गलिताशेषविषयीकृतमानसः ।
अध्यक्षमीक्षते साक्षाजगज्योतिर्मयं क्षणै ॥ २६ ॥
अर्थ — उसके पश्चात् गलित हो गये हैं समस्त विषय जिसमें ऐसे अपने मनको 'स्थिर करनेवाला योगी उसी क्षणमें ज्योतिर्मय साक्षात् जगतको प्रत्यक्ष अवलोकन करता है ॥ २६ ॥
१ बिन्दुमानं इत्यपि पाठः ।