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ज्ञानार्णवः। . अर्थ-"अरहंत" इन चार अक्षरोंका मन्त्र है सो धर्म अर्थ काम मोक्षरूप फलको देनेवाला है. इसका जो चारसौ बार जप करता है वह एक उपवासका फल पाता है ॥५१॥
वर्णयुग्मं श्रुतस्कन्धसारभूतं शिवप्रदम् ।
ध्यायेजन्मोद्भवाशेषक्लेशविध्वंसनक्षमम् ॥५२॥ अर्थ-'सिद्ध' इन दो अक्षरोंका युग्म है, सो श्रुतस्कन्ध का (द्वादशांगशास्त्रका) सारभूत है, मोक्षको देनेवाला है, संसारसे उत्पन्न हुए समस्त क्लेशोंको नाश करनेमें समर्थ है, इसलिये योगी इसका ध्यान करै ॥ ५२ ॥
अवर्णस्य सहस्रार्द्ध जपन्नानन्दसंभृतः। ।
प्रामोत्येकोपवासस्य निर्जरां निर्जिताशयः ॥५३॥ अर्थ-जो मुनि अपने चित्तको वश करके, आनंदसे 'अ' इस वर्णमात्रका पांचसौ वार जप करता है; वह एक उपवासके निर्जरारूपफलको प्राप्त होता है ।। ५३ ॥
एतद्धि कथितं शास्त्रे रुचिमात्रप्रसाधकम् ।
किन्त्वमीषां फलं सम्यक्वर्गमोक्षकलक्षणम् ॥ ५४॥ अर्थ-यह जो शास्त्रमें इन मंत्रोंके जपका एक उपवासरूप फल कहा है सो केवल मंत्र जपनेकी रुचि करानेके लिये है किन्तु, वास्तवमें उक्त मंत्रोंका उत्तम फल स्वर्ग और मोक्ष ही है ॥ ५४ ॥
पञ्चवर्णमयी विद्यां पञ्चतत्त्वोपलक्षिताम् ।
मुनिवीरै श्रुतस्कन्धाहीजवुद्धया समुद्धृताम् ॥ ५५ ॥ अर्थ-पांच तत्त्वोंसे युक्त, पांच अक्षरमयी विद्याको मुनीश्वरोंने द्वादशांग शास्त्रमेंसे सारभूत समझकर निकाली है. वह पंचाक्षरमयी विद्या ॐ हाँ ही हूँ हौं हः अ सि आ उ सा नमः इस प्रकार है ।। ५५ ।।
अस्यां निरन्तराभ्यासादशीकृतनिजाशयः।
मोच्छिनत्त्याशु निःशङ्को निगूढं जन्मवन्धनम् ॥५६॥ अर्थ-इस पूर्वोक्त पंचाक्षरमयी विद्यामें निरन्तर अभ्यास करनेसे वशीभूत कर लिया है मन जिसने ऐसा मुनि निःशंक होकर, अतिकठिन संसाररूपी बन्धनको शीघ्र ही काट देता है ॥ ५६ ॥
मङ्गलशरणोत्तमपदनिकुरम्बं यस्तु संयमी स्मरति । अविकलमेकाग्रधिया स चापवर्गश्रियं श्रयति ॥ ५७ ॥