Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 414
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् इस मन्त्रराजके विषयमें जो मत हैं उनको कहते हैं । वुद्धः कैश्चिद्धरिः कैश्चिदजा कैश्चिन्महेश्वरः । शिवः सार्वस्तथैशानः सोऽयं वर्णः प्रकीर्तितः ॥ ११ ॥ अर्थ-कितने ही इस (ई) अक्षरको बुद्ध, कितने ही हरि, कितने ही ब्रह्मा, कितने ही महेश्वर, कितने ही शिव, कितने ही सार्व और कितने ही ईशानस्वरूप कहते हैं ।। ११॥ परन्तु यथार्थमें यह अक्षर क्या है सो कहते हैं। मन्त्रमूर्ति समादाय देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाव्यवस्थितः ॥ १२ ॥ अर्थ-यह मन्त्रराज (ई) अक्षर ऐसा है कि मानो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्तमूर्तिके धारक देवाधिदेव खयं श्रीजिनेन्द्र भगवान् ही मन्त्रमूर्तिको धारण करके साक्षात् विराजमान हैं । भावार्थ-यह मन्त्रराज अक्षर साक्षात् श्रीजिनेन्द्रस्वरूप है ॥ १२ ॥ . ज्ञानबीजं जगबन्यं जन्मज्वलनवाच्चम् । पवित्रं मतिमान्ध्यायेदिम मन्त्रमहेश्वरम् ॥ १३ ॥ __ अर्थ-बुद्धिमान् पुरुष इस मन्त्रराजको ज्ञानका बीज, जगत्से वंदनीय तथा संसाररूपी अमिके लिये अर्थात् जन्मसंतापको दूर करनेके लिये मेघके समान ध्यावै ॥ १३ ॥ सकृदुच्चारितं येन हृदि येन स्थिरीकृतम् । तत्त्वं तेनापवाय पाथेयं प्रगुणीकृतम् ॥१४॥ __ अर्थ-इस मन्त्रराज महातत्त्वको जिस पुरुपने एक बार भी उच्चारण किया तथा जिसने हृदयमें स्थित किया उसने मोक्षके लिये पाथेय (संवल) संग्रह किया ॥ १४ ॥ __ यदैवेदं महातत्त्वं मुनेत्ते हृदि स्थितिम् । तदैव जन्मसन्तानप्ररोहः प्रविशीयते ॥१५॥ अर्थ-जिस समय यह महातत्त्व मुनिके हृदयमें स्थिति करता है उस ही काल संसारके सन्तानका अंकुर गल जाता है अर्थात् टूट जाता है ॥ १५॥ अब इस मंत्रराजका ध्यान कैसे करै सो कहते हैं, स्फुरन्तं भूलतामध्ये विशन्तं वदनाम्बुजे । तालुरन्ध्रेण गच्छन्तं सवन्तममृताम्बुभिः ॥१६॥ स्फुरन्तं नेत्रपत्रेषु कुर्वन्तमलके स्थितिम् । भ्रमन्तं ज्योतिषां चक्रे स्पर्धमानं सितांशुना ॥१७॥ संचरन्तं दिशामास्ये प्रोच्छलन्तं नभस्तले। छेदयन्तं कलङ्कौघं स्फोटयन्तं भवनमम् ॥१८॥

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