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• रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . अर्थ-अनादि सिद्धान्तमें प्रसिद्ध जो वर्णमातृका अर्थात् अकारादि खर और ककारादि व्यञ्जनोंका समूह है उसका चिन्तवन करै. क्योंकि, यह वर्णमातृका सम्पूर्ण शब्दोंकी रचनाकी जन्मभूमि है और जगतसे वंदनीय है ॥ २ ॥
द्विगुणाष्टदलाम्भोजे नाभिमण्डलवर्तिनि ।
भ्रमन्तीं चिन्तये यानी प्रतिपत्रं स्वरावलीम् ॥ ३॥ - 'अर्थ-ध्यान करनेवाला पुरुष नाभिमंडलपर स्थित सोलह दल (पॅखड़ी) के कमलमें प्रत्येक दलपर क्रमसे फिरती हुई स्वरावलीका अर्थात् अआ इई उऊ ऋ ललू ए ऐ ओऔ अंअः इन अक्षरोंका चिन्तवन करै ॥ ३ ॥
चतुर्विंशतिपत्रात्यं हृदि क सकर्णिकम् ।। .. तत्र वर्णोनिमान्ध्यायेत्संयमी पञ्चविंशतिम् ॥ ४॥
अर्थ-तत्पश्चात् ध्यानी अपने हृदयस्थानपर कर्णिका सहित चौवीस पत्रोंका कमल संयमी मुनि चिन्तवन करके उसकी कर्णिका तथा पत्रोंमें क ख ग घ ङ च छ ज झ न ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म इन पच्चीस अक्षरोका ध्यान करै ॥ ४ ॥
ततो वनराजीवे पत्राष्टकविभूपिते ।
परं वर्णाष्टकं ध्यायेत्सञ्चरन्तं प्रदक्षिणम् ॥ ५॥ अर्थ-तत्पश्चात् आठ पत्रोंसे विभूपित मुखकमलके प्रत्येक पत्रपर भ्रमण करते हुए य र ल व श ष स ह इन आठ वर्गों को ध्यान करै ॥ ५॥
इत्यजस्रं स्मरन् योगी प्रसिद्धां वर्णमातृकाम् ।
श्रुतज्ञानाम्बुधेः पारं प्रयाति विगतभ्रमः ॥ ६॥ अर्थ-इस प्रकार प्रसिद्ध वर्णमातृकाका निरन्तर ध्यान करता हुआ योगी भ्रमरहित होकर, श्रुतज्ञानरूपी समुद्र के पारको (उत्तरतटको) प्राप्त हो जाता है। भावार्थइसप्रकार ध्यान करनेवाला मुनि श्रुतकेवली हो सकता है ॥ ६ ॥
उक्तं च-आर्या। कमलदलोदमध्ये ध्यायन्वर्णाननादिसंसिद्धान् ।
नष्टादिविषयबोधं ध्याता सम्पद्यते कालात् ॥१॥ अर्थ-ध्यान करनेवाला पुरुष कमलके पत्र और कर्णिकाके मध्यमें अनादि संसिद्ध (पूर्वोक्त ४९) अक्षरोंका ध्यान करता हुआ कितने ही कालमें नष्टादि वस्तु संबंधी ज्ञानको प्राप्त करता है ॥ १॥
उक्तं च-वसन्ततिलका। जाप्याजयेत् क्षयमरोचकमग्निमान्य
कुष्ठोदरात्मकसनश्वसनादिरोगान् ।