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ज्ञानार्णवः। प्रामोति चाप्रतिमवाझहती महङ्ग्यः
पूजां परन च गतिं पुरुपोत्तमाप्ताम् ॥२॥ अर्थ-इस वर्णमातृकाके जाप्यसे योगी क्षयरोग, अरुचिपना; अग्निमंदता, कुष्ठ, उदररोग, कास तथा श्वास आदि रोगोंको जीतता है । और वचनसिद्धता, महान् पुरुषोंसे पूजा तथा परलोकमें उत्तम पुरुषोंसे प्राप्त की हुई श्रेष्ठ गतिको प्राप्त होता है ॥ २ ॥ अब मन्त्रराजका ध्यान कहते हैं,
अथ मन्नपदाधीशं सर्वतत्त्वैकनायकम् । आदिमध्यान्तभेदेन खरव्यञ्जनसम्भवम् ॥ ७॥ अधिोरेफसंरुद्धं सपरं विन्दुलाञ्छितम् ।
अनाहतयुतं तत्त्वं मन्त्रराज प्रचक्षते ॥ ८॥ अर्थ-अव समस्त मन्त्र पदोंका खामी, सव तत्त्वोंका नायक, आदि मध्य और अन्तके भेदसे खर तथा व्यंजनोंसे उत्पन्न, ऊपर और नीचे रेफ (1)से रुका हुआ तथा विन्दु ()से चिह्नित सपर कहिये हकार अर्थात् ( ई) ऐसा बीजाक्षर तत्त्वहै. अनाहतसहित इसको योगीजन मन्त्रराज कहते हैं ॥ ७ ॥ ८॥
देवासुरनतं भीमदुर्योधध्वान्तभास्करम् ।
ध्यायेन्मूर्द्धस्थचन्द्रांशुकलापाक्रान्तदिङ्मुखम् ॥९॥ अर्थ-देव और असुर कर रहे हैं नमस्कार जिसको ऐसा, अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यके समान तथा मस्तकपर स्थित जो चन्द्रमा उसकी किरणों के समूहसे व्याप्त किया है दिशाओंका मुख (आदि) भाग जिसने ऐसे इस मन्त्रराजका ध्यान करै ॥ ९॥ तत्पश्चात् इस मन्त्रराजका कैसा ध्यान करै सो कहते हैं ।
कनककमलग: कर्णिकायां निषण्णं
विगतमलकलङ्क सान्द्रचन्द्रांशुगौरम् । गगनमनुसरन्तं सञ्चरन्तं हरित्सु
स्मर जिनवरकल्पं मन्त्रराजं यतीन्द्र ॥ १०॥ अर्थ-हे मुनीन्द्र सुवर्णमय कमलके मध्यमें कर्णिकापर विराजमान, मल तथा कलंकसे रहित शरदऋतुके पूर्ण चन्द्रमाकी किरणोंके समान गौरवर्णके धारक, आकाशमें गमन करते हुए तथा दिशाओंमें व्याप्त होते हुए ऐसे श्रीजिनेन्द्रके सदृश इस मन्त्रराजका स्मरण अर्थात् ध्यान करो ॥ १० ॥ (१) अनाहतका खरूप आगे लिखा जावेगा।