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ज्ञानार्णवः। लिये खाधीन चितवनोंसे चित्तको वश करना चाहिये. सो, ध्यानमें किसीका आलम्बन किये विना चित्त निश्चल नहीं होता, इसकारण उसको आलम्बन करनेके लिये पिंडस्थ ध्यानमें पृथिवी आदि पांच प्रकारकी धारणाकी कल्पना स्थापन की गयी है । सो, प्रथम तो पृथिवीसंबंधी धारणासे मनको थांमै तत्पश्चात् अग्निकी धारणासे कर्म और शरीरको दग्ध करनेकी कल्पना करके मनको रोकै, तत्पश्चात् पवनकी धारणाकी कल्पना करके शरीर तथा कर्मकी भस्सको उड़ाकर मनको थामै, तत्पश्चात् जलकी धारणासे उसमेंसे वची बचाई रजको धो देनेरूप ध्यानसे मनको थांमै, तत्पश्चात् आत्माको, शरीर और कर्मसे रहित शुद्ध ज्ञानानंदमय कल्पना करके, उसमें मनको स्तंभन कैर. इस प्रकार मनको थांभते २ अभ्यासके करनेसे ध्यानका दृढ अभ्यास हो जाता है तब आत्मा शुक्लध्यानमें ठहरता है, उस समय घातिकाँका नाश करके केवल ज्ञानकी प्राप्तिहोकर, मोक्ष हो जाता है । तथा अन्यमती भी इसीप्रकार पार्थिवी आदि धारणा करनेको कहते हैं, परन्तु उनके आत्मतत्त्वका यथार्थ निरूपण नहीं होनेके कारण उनके यहाँ सत्यार्थ धारणा नहीं होती। कुछ लौकिक चमत्कार सिद्ध हो तो हो जाओ, परन्तु मोक्षकी प्राप्ति तो यथार्थ तत्त्वके श्रद्धान ज्ञान आचरण विना होती ही नहीं। इस कारण इसमें सन्देह नहीं करना ॥
चौपाई १५ माना। या पिंडस्य ध्यानके माहि । देहविपे थित आतम ताहि । चितवै पंच धारणा धारि । निज आधीन चित्तको पारि ॥ ३६॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे पिण्डस्थ
ध्यानवर्णनं नाम सप्तत्रिशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३७ ॥
अथ अष्टत्रिशं प्रकरणम् ।
आगे पदस्थ ध्यानका वर्णन करते हैं,
पदान्यालम्व्य पुण्यानि योगिभिर्यविधीयते ।
तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः॥१॥ अर्थ-जिसको योगीश्वर पवित्र मंत्रोंके अक्षर खरूप पदोंका अवलंबन करके चितवन • करते हैं उसको अनेक नयोंके पार पहुंचनेवाले योगीश्वरोंने पदस्थ ध्यान कहा है ॥ १ ॥ प्रथम ही वर्णमातृका ध्यानका विधान कहते हैं,
ध्यायेदनादिसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् । निःशेषशन्दविन्यासजन्मभूमि जगन्नुताम् ॥२॥