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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तथा राक्षस कामी पुरुषोंसे व्याप्त, व्याध शिकारियों ये जहांपर जीववध किया हों, तथा शिल्पी, (शिलावट कारीगर) कारुक (मोची आदि) का विक्षिप्त स्थान (छोड़ा हुआ)हो, तथा . अग्निजीवी (लुहार ठठेरे आदिक) से युक्त हो, तथा शत्रुके मस्तकपर शुलकी समान शत्रुकी सेनाका स्थान तथा रजस्खला भ्रष्ट चारित्री नपुंसक अंगहीनोंके रहनेका स्थान, इत्यादि . स्थानोंको ध्यान करनेवाला छोड़े अर्थात् इन स्थानोंसे वंचकर अन्य योग्य स्थानमें ध्यान करना चाहिये ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥. . . . . .
विद्रवन्ति जना पापाः सञ्चरन्त्यभिसारिकाः।
क्षोभयन्तीगिताकारैर्यत्र नार्योपशङ्कित्ताः ॥ ३०॥ अर्थ-तथा जहांपर पापीजन उपद्रव करते हों, जहां अभिसारिका स्त्रिये विचरती हों, तथा स्त्रियें निःशकित होकर जहां कटाक्ष इंगिताकारादिकसे क्षोभ उत्पन्न करती हों ऐसे स्थानका ध्यानी मुनि त्याग करै ॥ ३० ॥ अब कुछ विशेष कहते हैं
कि.च क्षोभाय मोहाय यद्विकाराय जायते। , .
स्थानं तदपि मोक्तव्यं ध्यानविध्वंसशङ्कितः ॥ ३१ ॥ अर्थ:-जो मुनि ध्यानविध्वंसके भयसे भयभीत हैं उनको क्षोभकारक, मोहक तथा विकार करनेवाला स्थान भी छोड़ देना चाहिये.॥.३१ ॥
तृणकण्टकवल्मीकविषमोपलकर्दमः। ..
भस्मोच्छिष्टास्थिरक्ताद्यैर्दूषितां सन्त्यजेद्भुवम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-तथा जो जगह तृण, कंटक, वल्मीकि, (वांबी), विषम पापाण, कर्दम, भस्म, उच्छिष्ट, हाड, रुधिरादिक निंद्य वस्तुओंसे दूपित हो उसको ध्यान करनेवाला छोडै ॥३२॥ ' : काककौशिकमार्जारखरगोमायुमण्डलैः। . . . . : ... . अवघुष्टं हि विघ्नाय ध्यातुकामस्य योगिनः ॥ ३३ ॥ ..
अर्थ-तथा जो स्थान काक उलूक बिलाव गर्दभ शृगाल श्वानादिकसे अवधुष्ट हो अर्थात् जहाँ ये शब्द करतें हों वह स्थान योगी मुनिगणोंके ध्यानको विघ्नकारक है ॥३३॥ .. ध्यानध्वंसनिमित्तानि तथान्यान्यपि भूतले। ...
न हि खनेऽपि सेव्यानि स्थानानि मुनिसत्तमैः ॥ ३४॥ अर्थ-जो जो पूर्वोक्त स्थान कहे उसी प्रकार अन्यस्थान भी जो ध्यानके विघ्नकारक हों वे सब ही स्थान ध्यानी मुनिजनोंको छोड़ देने चाहिये, ऐसे स्थान खप्नमें भी सेवने. योग्य नहीं हैं ॥.३४ ॥