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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् __ अर्थ तत्पश्चात् उस कमलके मध्य सुवर्णाचल (मेरु )के समान स्फुरायमान है पीतरंगकी प्रभाका समूह जिसमें तथा उसके द्वारा पीतरंगकी कर दी हैं दशों दिशायें जिसने ऐसी एक कर्णिकाका ध्यान करै ॥ ७॥
शरच्चन्द्रनिभं तस्यामुन्नतं हरिविष्टरम् ।
तत्रात्मानं सुखासीनं प्रशान्तमिति चिन्तयेत् ॥८॥ अर्थ-उस कमलकी कर्णिकामें शरद ऋतुके चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका एक ऊंचा सिंहासन.चितवन करै. उस सिंहासनमें अपने आत्माको सुखरूप, शान्त खरूप, क्षोभरहित चितवन करै ॥ ८॥
रागद्वेषादिनिःशेषकलङ्कक्षपणक्षमम् । _उद्युक्तं च भवोद्भूतकर्मसन्तानशासने ॥८॥
अर्थ-उस सिंहासनपर बैठे हुए अपने आत्माको ऐसा विचारै कि यह रागद्वेषादिक समस्त कलंकोंको क्षय करनेमें समर्थ है और संसारमें उत्पन्न हुए जो जो कर्म हैं उनके सन्तानको नाश करनेमें उद्यमी है ॥९॥
इस प्रकार यह पार्थिवी धारणाका खरूप जानना । अव आमेयी धारणाका वर्णन करते हैं,
ततोऽसौ निश्चलाभ्यासात्कमलं नाभिमण्डले । __ स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ॥१०॥
अर्थ-तत्पश्चात् योगी (ध्यानी) निश्चल अभ्याससे अपने नाभिमंडलमें १६ सोलह ऊंचे २ पत्रोंके एक मनोहर कमलका ध्यान (चिन्तवन) करै ॥ १० ॥
प्रतिपत्रसमासीनखरमालाविराजितम् ।
कर्णिकायां महामन्त्रं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ॥११॥ : अर्थ-तत्पश्चात् उस कमलकी कर्णिकामें महामन्त्रका (जो आगे कहा जाता है उसका) चिन्तवन करे और उस कमलके सोलह पत्रोंपर 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः' इन १६ अक्षरोंका ध्यान करै ॥११॥ ___ उस महामन्त्रका खरूप कहते हैं,
- रेफरुद्धं कलाबिन्दुलाञ्छितं शून्यमक्षरम् ।
लसदिन्दुच्छटाकोटिकान्तिव्याप्तहरिन्मुखम् ॥ १२॥ अर्थ-रेफसे रुद्ध कहिये आवृत और कला तथा बिन्दुसे चिह्नित और शून्य कहिये हकार ऐसा अक्षर लसत् कहिये देदीप्यमान होते हुए बिंदुकी छटाकोटिकी कान्तिसे व्याप्त किया है दिशाका मुख जिसने ऐसा महामन्त्र "हे" उस कमलकी कर्णिकामें स्थापन कर, चिन्तवन करै ॥ १२ ॥