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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् .: विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । . ____ खं ततः पुरुषाकारं खाङ्गगर्भगतं स्मरेत् ॥ १८५॥ .. .
अर्थ-तथा इस लोकके संस्थानके चिन्तवनके पश्चात् अपने शरिरमें प्राप्त पुरुषाकार अपने आत्माकों कर्मरहित स्फुरायमान अति निर्मळ चिन्तवन करै (स्मरण करै) ।। १८५ ॥
मालिनी . . . इति निगदितमुच्चैलॊकसंस्थानमित्थं
नियतमनियतं वा ध्यायतः शुद्धबुद्धः । भवति सततयोगाद्योगिनो निष्प्रमादं
नियतमनतिदूरं केवलज्ञानराज्यम् ॥ १८६ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि इस पूर्वोक्त प्रकारसे कहे हुए लोकके खरूपको ( संस्थानको ) इस प्रकार नियत मर्यादासहित वा अनियत मर्यादासहित चिन्तवन करता हुआ जो निर्मल बुद्धि मुनि है उसको प्रमादरहित ध्यान करनेसे नियमसे शीघ्र ही केवल ज्ञान राज्यकी प्राप्ति होती है । भावार्थ-अप्रमत्त नामा सातवें गुणस्थानमें यह धर्म ध्यान उत्कृष्ट होता हैं उस गुणस्थानसे फिर क्षपक श्रेणीका प्रारंभ करनेपर अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है ॥ १८६ ॥ ___ इस प्रकार संस्थानविचय नाम धर्म ध्यानमें लोकसंस्थानका चितवन करना होता है इस कारण लोकके संस्थानोंका संक्षेप वर्णन किया-यदि किसीको लोकका विशेष वर्णन देखना हो तो त्रिलोकसारादि ग्रंथको देखे ॥
छप्पय ।
लोकरूप सर्वज्ञ कथित सत्यारथ जाने । अधो मध्य अरु अर्ध भेद त्रय कहे सुमाने ॥ रचना है षद्रव्यतणी बहुभाग विचारो।
दिव्यदृष्टिते नित्य अनतिपर्यय लखि धारो॥ इस ध्यान तूर्यमें ध्येय करि, ध्यावो जिय मन स्थिर रहै ।
पुनि आतमको संस्थान हू, चितवो ज्यों विधिना रहै ॥ ३५ ॥ इति श्रीशुभचंद्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे संस्थानविचय
नामकध्यानवर्णनं नाम षट्त्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३६ ॥
___ अथ सप्तत्रिंशं प्रकरणम् । .
आगे-इस संस्थान विचय नामा धर्म ध्यानमें पिण्डस्थ, पदस्थ रूपस्थ और रूपातीत इस प्रकार ध्यानके जो चार भेद कहे हैं उनका वर्णन किया जाता है,- .