Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 404
________________ ३८० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् .: विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । . ____ खं ततः पुरुषाकारं खाङ्गगर्भगतं स्मरेत् ॥ १८५॥ .. . अर्थ-तथा इस लोकके संस्थानके चिन्तवनके पश्चात् अपने शरिरमें प्राप्त पुरुषाकार अपने आत्माकों कर्मरहित स्फुरायमान अति निर्मळ चिन्तवन करै (स्मरण करै) ।। १८५ ॥ मालिनी . . . इति निगदितमुच्चैलॊकसंस्थानमित्थं नियतमनियतं वा ध्यायतः शुद्धबुद्धः । भवति सततयोगाद्योगिनो निष्प्रमादं नियतमनतिदूरं केवलज्ञानराज्यम् ॥ १८६ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि इस पूर्वोक्त प्रकारसे कहे हुए लोकके खरूपको ( संस्थानको ) इस प्रकार नियत मर्यादासहित वा अनियत मर्यादासहित चिन्तवन करता हुआ जो निर्मल बुद्धि मुनि है उसको प्रमादरहित ध्यान करनेसे नियमसे शीघ्र ही केवल ज्ञान राज्यकी प्राप्ति होती है । भावार्थ-अप्रमत्त नामा सातवें गुणस्थानमें यह धर्म ध्यान उत्कृष्ट होता हैं उस गुणस्थानसे फिर क्षपक श्रेणीका प्रारंभ करनेपर अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है ॥ १८६ ॥ ___ इस प्रकार संस्थानविचय नाम धर्म ध्यानमें लोकसंस्थानका चितवन करना होता है इस कारण लोकके संस्थानोंका संक्षेप वर्णन किया-यदि किसीको लोकका विशेष वर्णन देखना हो तो त्रिलोकसारादि ग्रंथको देखे ॥ छप्पय । लोकरूप सर्वज्ञ कथित सत्यारथ जाने । अधो मध्य अरु अर्ध भेद त्रय कहे सुमाने ॥ रचना है षद्रव्यतणी बहुभाग विचारो। दिव्यदृष्टिते नित्य अनतिपर्यय लखि धारो॥ इस ध्यान तूर्यमें ध्येय करि, ध्यावो जिय मन स्थिर रहै । पुनि आतमको संस्थान हू, चितवो ज्यों विधिना रहै ॥ ३५ ॥ इति श्रीशुभचंद्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे संस्थानविचय नामकध्यानवर्णनं नाम षट्त्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३६ ॥ ___ अथ सप्तत्रिंशं प्रकरणम् । . आगे-इस संस्थान विचय नामा धर्म ध्यानमें पिण्डस्थ, पदस्थ रूपस्थ और रूपातीत इस प्रकार ध्यानके जो चार भेद कहे हैं उनका वर्णन किया जाता है,- .

Loading...

Page Navigation
1 ... 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471