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ज्ञानार्णवः। हैं. उनसे ऊपर जो नवौवेयकोंमें वैमानिक देव हैं, वे करपातीत कहाते हैं ।। १७८ ॥ वे देव अहमिन्द्र नामसे वर्णन किये जाते हैं अर्थात् उनका आचार्योंने अहमिन्द्र नाम कहा है. वे अहमिन्द्र कामरहित हैं. उनके स्त्रीका मैथुन वर्जित है, इसी कारण वहां देवांगनायें नहीं होती. उन देवोंका शुभ ध्यान उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ है और वे शुक्ल लेश्याके धरनेवाले हैं ॥ १७९॥
अनुत्तरविमानेषु श्रीजयन्तादिपञ्चसु ।
संभूय स्वर्गिणश्युत्त्वा ब्रजन्ति पद्मव्ययम् ।। १८० ॥ अर्थ-तत्पश्चात् उन नवप्रैवेयक विमानोंसे ऊपर श्रीजयन्तादिक पांच अनुत्तर विमान हैं. उनमें जो देव उत्पन्न होते हैं वे वहांसे गिरकर, मनुष्य हो अवश्यही मोक्षको पाते हैं ॥ १८० ॥
कल्पेषु च विमानेषु परतः परतोऽधिकाः।
शुभलेश्यायुर्विज्ञानप्रभावैः स्वर्गिणः खयम् ॥ १८१ ॥ अर्थ-तथा कल्पोंमें और कल्पातीत विमानोंमें शुभ लेश्या आयु विज्ञान प्रभावादिक करके देव स्वयंही अगले २ विमानोंमें अधिक अधिक बढ़ते हुए हैं ॥ १८१ ॥
ततोऽग्रे शाश्वतं धाम जन्मजातङ्कविच्युतम् ।
ज्ञानिनां यद्धिष्टानं क्षीणनिःशेषकर्मणाम् ॥ १८२ ॥ अर्थ-उन अनुत्तर विमानोंसे आगे अर्थात् ऊपर शाश्वत धाम ( मोक्षस्थान वा सिद्धशिला ) है. सो संसारसे उत्पन्न हुए क्लेश दुःखादिसे रहित है और समस्त कर्मोंके नाश करनेवाले सिद्ध भगवानोंका आश्रयस्थान है ॥ १८२ ॥
चिदानन्दगुणोपेता निष्ठितार्थी विवन्धनाः ।
यत्र सन्ति स्वयं वुद्धाः सिद्धाः सिद्धेः खयंवराः ।। १८३ ।। अर्थ-उस मोक्षस्थानमें सिद्ध भगवान् विद्यमान हैं, वे चैतन्य और आनन्द रुप गुणोंसे संयुक्त हैं, कृत्यकृत्य हैं, कर्मवन्धसे रहित हैं, स्वयंवुद्ध हैं अर्थात् जिनके खाधीन अतीन्द्रिय ज्ञान है तथा सिद्धिको ( मुक्तिको ) स्वयं वरनेवाले हैं ॥ १८३ ॥
समस्तोऽयमहो लोकः केवलज्ञानगोचरः।।
तं व्यस्तं वा समस्तं वा स्वशत्या चिन्तयेद्यतिः ॥ १८४ ॥ अर्थ-अहो भव्य जीवो! यह समस्त लोक केवलज्ञानगोचर है तथापि इस संस्थानविचय नामा धर्म ध्यानमें मुनि सामान्यतासे सबहीको तथा व्यस्त कहिये कुछ भिन्न भिन्नको अपनी शक्तिके अनुसार चिन्तवन करै ।। १८४ ॥
(१) विजय १ वैजयन्त २ जयन्त ३ अपराजित ४ और सर्वार्थसिद्धि ५ ये पांच विमान हैं।