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ज्ञानार्णवः ।
३८३ फिर कैसा चिन्तवन करै सो कहते हैं,
तस्य रेफाद्विनिर्यान्तीं शनै●मशिखां स्मरेत् । स्फुलिङ्गसंततिं पश्चाज्वालालीं तदनन्तरम् ॥ १३ ॥ तेन ज्वालाकलापेन वर्द्धमानेन सन्ततम् ।
दहत्यविरतं धीरः पुण्डरीकं हृदिस्थितम् ॥ १४ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् उस महामन्त्रके रेफसे मन्द मन्द निकलती हुई धूमकी (ध्येकी) शिखाका चिन्तवन करै तत्पश्चात् उसमेंसे अनुक्रमसे प्रवाहरूप निकलते हुए स्फुलिंगोंकी पंक्तिका चिन्तवन करै और तत्पश्चात् उसमेंसे निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंको विचारै ॥ १३ ॥ तत्पश्चात् योगी मुनि क्रमसे बढ़ते हुए उस ज्वालाके समूहसे अपने हृदयस्य कमलको निरन्तर जलाता हुआ चिन्तवन करै ॥ १४ ॥ उस हृदयस्थ कमलका विशेष स्वरूप कहते हैं,
तटकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् ।
दहत्येव महामन्त्रध्यानोत्थप्रवलोऽनलः ॥१५॥ अर्थ-वह हृदयस्य कमल अधोमुख आठ पत्रका (पाखुंडीवाला) है. उन आठ पत्रों (दलों पर आठ कर्म स्थित हों ऐसे कमलको नाभिस्थ कमलकी कर्णिकामें स्थित "है" महामन्त्रके ध्यानसे उठी हुई प्रवल अमि निरंतर दहती है. इस प्रकार चिन्तवन करै, तब अष्टकर्म जलजाते हैं. यह चैतन्यपरिणामोंकी सामर्थ्य है ॥ १५ ॥
ततो वहिः शरीरस्य त्रिकोणं वह्निमण्डलम् । स्मरेज्वालाकलापेन ज्वलन्तमिव वाडवम् ॥ १६ ॥ वहिवीजसमाकान्तं पर्यन्ते स्वस्तिकाङ्कितम् । ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूतं निधूमं काञ्चनप्रभम् ॥ १७ ॥ अन्तर्दहति मन्त्रार्चिवहिर्वहिपुरं पुरम् । धगद्धगितिविस्फूर्जज्ज्वालापचयभासुरम् ॥ १८॥ भमभावमसौ नीत्वा शरीरं तच्च पङ्कजम् ।
दाह्याभावात्स्वयं शान्ति याति वह्निः शनैः शनैः ॥ १९ ॥ अर्थ-उस कमलके दग्ध हुए पश्चात् शरीरके वाह्य त्रिकोण वहिका (अग्निका) चिन्तवन करै सो ज्वालाके समूहोंसे जलते हुए वडवानलके समान ध्यान करै ॥ १६ ॥ तथा अग्नि बीजाक्षर से व्याप्त और अन्तमें साथियाके चिहसे चिह्नित हो, ऊर्ध्व वायुमंडलसे उत्पन्न धूमरहित कांचनकीसी प्रभावाला चितवन करै ॥ १७ ॥ इस प्रकार यह धगधगायमान फैलती हुई लपटोंके समूहसे देदीप्यमान बाहरका अमिपुर (अग्निमंडल ) अंतरंगकी मंत्रामिको दग्ध करता है ॥ १८ ॥ तत्पश्चात् यह अमिमंडल उस