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ज्ञानार्णवः ।..
३८१ . पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । .. चतुझे. ध्यानमानातं भव्यराजीवभास्करैः॥१॥ अर्थ-जो भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये सूर्यके समान योगीश्वर हैं। उन्होंने ध्यानको पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकारका कहा।
पिण्डस्थे पञ्च विज्ञेया धारणा वीरवर्णिताः।
संयमी याखसंमूढो जन्मपाशान्निकृन्तति ॥२॥ अर्थ-पिंडस्थ ध्यानमें श्रीवर्द्धमान खामीसे कही हुई जो पांच धारणायें हैं उनमें संयमी मुनि ज्ञानी होकर संसाररूपी पाशको काटता है ॥ २ ॥
पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसना वाथ वारुणी।
तत्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथाक्रमम् ॥३॥ अर्थ-वे धारणा पार्थिवी, आमेयी, तथा श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ऐसे यथाक्रमसे होती हैं |॥ ३ ॥ . सो प्रथमही पार्थिवी धारणाका स्वरूप कहते हैं,
तिर्यग्लोकसमं योगी सरति क्षीरसागरम् ।
निःशन्दं शान्तकल्लोलं हारनीहारसंनिभम् ॥ ४॥ अर्थ-प्रथमही योगी मध्यलोकमें स्वयंभू रमण नामा समुद्रपर्यन्त जो तिर्यक् लोक है, उसके समान निःशब्द, कल्लोलरहित, तथा वरफके सदृश सफेद क्षीरसमुद्रका ध्यान (चिन्तवन ) करें ॥ ४ ॥
तस्य मध्ये सुनिर्माणं सहस्रदलमम्बुजम् ।
सरत्यमितभादी दूतहेमसमप्रभम् ॥५॥ . अर्थ-उस क्षीरसमुद्रके मध्यभागमें सुन्दर है निर्माण (रचना) जिसका और अमित फैलती हुई दीप्तिसे शोभायमान पिघलाये हुए सुवर्णकीसी प्रभावाले एक सहसदलके कमलका चिन्तवन (ध्यान) करै ॥ ५॥
अनरागसमुद्भुतं केसरालिविराजितम् ।
जम्बूद्वीपप्रमाणं च चित्तभ्रमररक्षकम् ॥ ६॥ अर्थ-फिर इस कमलको कैसा ध्यावै कि कमलके रागसे उत्पन्न हुई केसरोंकी पंक्तिसे विराजमान ( शोभायमान ) तथा चित्तरूपी अमरको रंजायमान करनेवाले जम्बूद्वीपके वरावर लाख योजनका चिन्तवन करै ॥ ६ ॥ • वर्णाचलमयीं दिव्यां तत्र सरति कर्णिकाम् ।
स्फुरत्पिङ्गप्रभाजालपिशङ्गितदिगन्तराम् ॥ ७॥ ।