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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नाभिस्थ कमल और शरीरको भस्मीभूत करके दाह्यका (जलाने योग्य पदार्थका ) अभाव होनेसे धीरे धीरे अपने आप यह अग्नि शान्त हो जाती है ॥ १९ ॥ इस प्रकार यह आमेयी धारणा कही. आगे मारुती नामा धारणाका खरूप कहते हैं,
विमानपथमापूर्य संचरन्तं समीरणम् ।
स्मरत्यविरतं योगी महावेगं महावलम् ॥ २०॥ अर्थ-योगी (ध्यान करनेवाला मुनि आकाशमें पूर्ण होकर विचरते हुए महावे. गवाले और महाबलवान् ऐसे वायुमंडलका चिन्तवन करै ॥ २० ॥
चालयन्तं सुरानीकं ध्वनन्तं त्रिदशालयम् । दारयन्तं घननातं क्षोभयन्तं महार्णवम् ॥ २१॥ व्रजन्तं भुवनाभोगे संचरन्तं हरिन्मुखे । विसन्तं जगन्नीडे निविशन्तं धरातले ॥ २२॥ उद्भय तद्रजः शीघ्रं तेन प्रबलवायुना।
ततः स्थिरीकृताभ्यासः समीर शान्तिमानयेत् ॥ २३ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् उस पवनको ऐसा चिन्तवन करै कि-देवोंकी सेनाको चलायमान करता है, खगको कपाता है, मेघोंके समूहको बखेरता हुआ, समुद्रको क्षोभरूप करता हुआ ॥ २१ ॥ तथा लोकके मध्य गमन करता हुआ, दशों दिशाओंमें संचरता हुआ जगतरूप घरमें फैला हुआ, पृथिवीतलमें प्रवेश करता हुआ चितवन करै ॥ २२ ॥ तत्पश्चात् ध्यानी (मुनि) ऐसा चिंतवन करै कि वह जो शरीरादिकका भस है उसको इस प्रबल वायुमंडलने तत्काल उड़ादिया, तत्पश्चात् इस वायुको स्थिररूप चिन्तवन करके शान्तरूप करै ॥ २३ ॥ इस प्रकार यह मारुती धारणा कही । अब वारुणी धारणाका वर्णन करते हैं,
वारुण्यां स हि पुण्यात्मा धनजालचितं नमः। ।
इन्द्रायुधंतडिद्गर्जचमत्काराकुलं स्मरेत् ॥ २४ ॥ अर्थ-वही पुण्यात्मा (ध्यानी मुनि ) इन्द्रधनुष बिजुली गर्जनादि चमत्कार सहित मेघोंके समूहसे भरे हुए आकाशका ध्यान (चिनवन) करै ॥ २४ ॥
सुधाम्बुप्रभवैः सान्द्रबिन्दुभिमौक्तिकोज्ज्वलैः। ।
वर्षन्तं तं स्मरेद्धीरः स्थूलस्थलैनिरन्तरम ॥२५॥ - अर्थ-तथा उन मेघोंको अमृतसे उत्पन्न हुए मोती समान उज्वल बड़े २ बिंदुओंसे निरन्तर धारारूप वर्षते हुए आकाशकों धीर, वीर मुनि सरण करै अर्थात् ध्यान करै ।। २५॥ १'धनवात' इत्यपि पाठः।