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ज्ञानार्णवः । यान्यत्र प्रतिविम्वानि स्वर्गलोके जिनेशिनाम् । विमानचैत्यवृक्षेषु मेर्वायुपवनेषु च ॥ १६६ ॥ तेषां पूर्व महं कृत्वा खद्रव्यैः स्वर्गसंभवैः। पुष्पचन्दननैवेद्यैर्गन्धदीपाक्षतोत्करैः ॥ १६७ ॥ गीतवादिननिर्घोषैः स्तुतिस्तोमैमनोहरैः। खगैश्वर्य ग्रहीष्यामि ततस्त्रिदशवन्दितः ॥ १६८ ॥ इति सर्वज्ञदेवस्य कृत्वा पूजामहोत्सवम् ।।
स्वीकरोति ततो राज्यं पटवन्धादिलक्षणम् ॥ १६९॥ ' अर्थ-तत्पश्चात् वह इन्द्र विचारता है कि-जीवोंके रागादिकरूप अग्मिकी ज्वाला सम्यक् चारित्ररूपी जलको सींचे विना सैंकड़ों जन्म लेनेपर भी नहीं बुझती ॥ १६३ ॥ ऐसा सम्यक् चारित्र इस वर्गमें सुलभ नहीं है, इसलिये क्या करूं? इस वर्गलोकमें तो सम्यग्दर्शनकी ही योग्यता है, चारित्रकी योग्यता नहीं है ।। १६४ ॥ इस कारण मेरे स्वार्थके लिये तत्त्वार्थश्रद्धानही कल्याणकारी वा श्रेष्ठ है तथा अर्हन्त भगवान्के चरणयुगलमें अत्यन्त निश्चल भक्ति करना ही कल्याणकारी है ॥ १६५ ॥ इसलिये यहां स्वर्गमें विमानों, चैत्य वृक्षों तथा मेरु आदिके उपवनोंमें जो जिनेन्द्र भगवान्के प्रतिविम्ब हैं ॥ १६६ ॥ उनका प्रथमही इस स्वर्गके उत्पन्न हुए अपने द्रव्य पुप्प, चंदन, नैवेद्य, गन्ध, दीपक, व अक्षतोंके समूहसे पूजन करके ॥ १६७ ॥ तथा गीत नृत्य वादित्रोंके शब्दोंसहित मनोहर स्तुतियें करके तत्पश्चात् इस देवोंसे वंदनीय स्वर्गके ऐश्वर्यको ग्रहण करना चाहिये ॥ १६८ ॥ इस प्रकार विचारकर वह इन्द्र सर्वज्ञ देवकी पूजा करके महान्उत्सव पूर्वक पट्टबंधादिक है लक्षण जिसका ऐसे खर्गके राज्यको ग्रहण करता है ।। १६९ ॥
तस्मिन्मनोजवैर्यानैर्विचरन्तो यदृच्छया। । वनाद्रिसागरान्तेषु दीव्यन्ते ते दिवौकसः ॥ १७॥ अर्थ-तत्पश्चात् वे स्वर्गके देव मनके समान वेगवाले विमानोंके द्वारा खच्छन्द विचरते हुए वन, पर्वत वा समुद्रोंके तीरपर क्रीडा करते रहते हैं ।। १७० ॥
संकल्पानन्तरोत्पन्नैर्दिव्यभोगैः समन्वितम् । . .
सेवमानाः सुरानीकैः श्रयन्ति स्वर्गिणः सुखम् ॥ १७१॥ अर्थ-तथा संकल्प करते ही उत्पन्न होनेवाले नानाप्रकारके दिव्य मनोहर भोगोंको भोगते हुए देवोंकी सेनासहित वे खर्गके सुख भोगते रहते हैं ॥ १७१ ॥
महाप्रभावसम्पन्ने महाभूत्योपलक्षिते। . कालं गतं जानन्ति निमग्नाः सौख्यसागरे ॥ १७२॥
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