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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् लक्ष्मीको धरनेवाला है ॥ १५४ ॥ और यह आपकी मदोन्मत्त हस्तियोंकी सेना है, यह घोड़ोंकी सेना है, इसका वेग मनके समान है । यह सुवर्णमयी ऊंचे ऊंचे रथोंकी सेना है और ये पयादे हैं ॥ १५५ ॥ तथा यह आपकी सात प्रकारकी सेना है. पूर्वके इन्द्रों द्वारा पालित है, यह आपके चरणकमलोंको प्रार्थनापूर्वक नमस्कार करती है ॥ १५६ ॥ यह समस्त स्वर्गीय राज्य दिव्य सम्पदाओंसे शोभित है, सो आपके पुण्यके प्रतापसे आपके सन्मुख हुआ है. नम्रीभूत हैं देव जिसमें ऐसा हैं. सो आप ग्रहण कीजिये ॥ १५७ ॥ इस प्रकार अति सेहयुक्त अत्यन्त प्रीतिपूर्वक कहता है, उसी समय इन्द्र अवधिज्ञानको प्राप्त होकर पूर्व जन्मसंम्बधी समस्त वृत्तान्तको जान जाता है ॥ १५८ ॥
अहो तपः पुरा चीण मयान्यजनदुश्वरम् । वितीर्णं चाभयं दानं प्राणिनां जीवितार्थिनाम् ।। १५९ ॥ आराधितं मनःशुद्ध्या दृग्योधादिचतुष्टयम् । देवश्व जगतां नाथः सर्वज्ञः परमेश्वरः ॥ १६० ॥ निर्दग्धं विषयारण्यं स्मरवैरी निपातितः। कषायतरवश्छिन्ना रागशत्रुर्नियन्त्रितः॥ १६१ ।। सर्वस्तस्य प्रभावोऽयमहं येनाद्य दुर्गतेः ।
उद्धृत्य स्थापितं खर्गराज्ये त्रिदशवन्दिते ॥ १६२ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह इन्द्र अवधिज्ञानसे सब जानकर मन ही मनमें कहता है कि अहो ! देखो, मैंने पूर्व भवमें अन्यसे आचरण करनेमें नहीं आवे ऐसे तपको धारण किया तथा अनेक जीवोंको मैने अभयदान दिया ॥ १५९ ॥ तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, इन चारों आराधनाओंसे त्रैलोक्यके नाथ सर्वज्ञ परमेश्वर देवाधिदेवका आराधन किया था ॥ १६० ।। तथा मैने पूर्वभवमें इन्द्रियोंके विषयरूप वनको दग्ध किया था, कामरूप शत्रुका नाश किया था, कपायरूप वृक्षों को काट दिया था और रागरूपी शत्रुको पीडित किया था ॥ १६१ ॥ उसीका यह प्रभाव है. उक्त आचरणोंने ही इस समय मुझे दुर्गतिसे बचाकर इस देवोंके वंदनीय खर्गके राज्यमें स्थापन किया है ॥ १६२ ॥
रागादिदहनज्वाला न प्रशाम्यन्ति देहिनाम् ॥ सवृत्तवार्यसंसिक्ताः कचिजन्मशतैरपि ॥१६३ ।। तन्नात्र सुलभं मन्ये तत्किं कुर्मोऽधुना वयम् । सुराणां स्वर्गलोकेऽस्मिन्दर्शनस्यैव योग्यता ॥ १६४ ॥ अतस्तत्त्वार्थश्रद्धा मे श्रेयसी स्वार्थसिद्धये । अहंद्देवपद्वन्दे भक्तिश्चात्यन्तनिश्चला ॥ १६५ ॥