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ज्ञानार्णवः।
२८१ दुःस्थित हो जिसकाल मुनिका चित्त स्थिर खरूपको धारै तब ही ध्यानकी योग्यता है, निषेध नहीं है । पहिले स्थान और आसनका विधान कहा. उसके सिवाय जिस समय मुनिका चित्त स्थिरता धारै उस समय सर्व अवस्था सर्व क्षेत्रमें ध्यानकी योग्यता है, निपेध नहीं है ॥ २२॥
पूर्वाशाभिमुखः साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा।
प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते ॥ २३ ॥ अर्थ-ध्यानी मुनि जो ध्यानके समय प्रसन्नमुख होकर साक्षात् पूर्व दिशामें मुख करके अथवा उत्तर दिशामें भी मुख करके ध्यान करै, सो प्रशंसनीय कहा है ।। २३ ॥
चरणज्ञानसम्पन्ना जिताक्षा वीतमंत्सरा।
प्रागनेकाखवस्थासु संप्राप्ता यमिनः शिवम् ॥ २४॥ अर्थ-तथा ऐसा भी है कि चारित्र और ज्ञानसे संयुक्त, जितेन्द्रिय, मत्सररहित जो मुनिगण पूर्वकालमें अनेक अवस्थाओंसे मोक्षको प्राप्त होगये हैं उनके दिशाकी सम्मुखताका कुछ नियम नहीं था ॥ २४ ॥
मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ ।
अप्रमत्तप्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतौ यथायथम् ॥ २५ ॥ अर्थ-इस धर्मध्यानके यथायोग्य अधिकारी मुख्य और उपचारके भेदसे प्रमत्तगुणस्थानी और अप्रमत्तगुणस्थानी ये दो मुनि ही होते हैं ॥ २५॥
अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः।
पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता संपूर्णलक्षणः ॥ २६ ।। __ अर्थ-उक्त दोनों गुणस्थानियोंमें जो अप्रमत्तगुणस्थानी मुनि समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृपमनाराचसंहननवाला, तथा जितेन्द्रिय हो, स्थिर हो, पूर्वका ज्ञानी हो, संवरवान् और धीर हो अर्थात् परिपह और उपसर्गादिकसे चलित न हो, वही संपूर्ण लक्षणका धारक धर्मध्यानके ध्यावनेवाला होता है क्योंकि ऐसा मुनि ही किसी समय सातिशय अप्रमत्त होकर श्रेणीका आरंभ करता है ॥ २६ ॥ तथा च
श्रुतेन विकलेनापि स्वामी सूत्रे प्रकीर्तितः।
अधाश्रेण्यां प्रवृत्तात्मा धर्मध्यानस्य सुश्रुतः ॥ २७ ॥ अर्थ-सिद्धांतमें नीचेकी श्रेणी में प्रवृत्ता है आत्मा जिसका ऐसा विकलश्रुत अर्थात् पूर्वज्ञानरहित भावश्रुतवान् भी धर्मध्यानका खामी कहा है ॥ २७ ॥ १वीतविभ्रमः इत्यपि पाटः।