Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 396
________________ ३७२ राथचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। मुखामृतमहाम्भोधेमध्यादिव विनिर्गताः । भवन्ति त्रिदशाः सद्यः क्षणेन नवयौवनाः ॥१२८ ॥ अर्थ-उस उपपादशय्यामें वे देव उत्पन्न होते हैं सो जिसप्रकार समुद्रमेंसे कोई मनुष्य निकलै उसीप्रकार वे देव सुखरूपी महासमुद्रमेंसे तत्काल नव यौवनरूप होकर उत्पन्न होते हैं ॥ १२८॥ किं च पुष्पफलाक्रान्तैः प्रवालदलदन्तुरैः। तेषां कोकिलवाचालैर्दुमैर्जन्म निगद्यते ॥ १२९ ॥ अर्थ-फूल फलोंसे भरपूर, कोमल पत्तोंसे अंकुरित और कोकिलाओंसे शव्दायमान वृक्षों करके उनके जन्मकी सूचना की जाती है ।। १२९ ।। गीतवादिवनिर्घोषैर्जयमङ्गलपाठकः । वियोध्यन्ते शुभैः शब्दैः सुखनिद्रात्यये यथा ॥ १३० ॥ अर्थ-तथा वे देव उस उपपादशय्यामें ऐसे उत्पन्न होते हैं कि जैसे कोई राजकुमार सोता हो और वह गीत वादिनोंके शब्दोंसे, 'जय जय' इत्यादि मंगलके पाठोंसे तथा उत्तमोत्तम शब्दोंसे सुखनिद्राका अभाव होनेपर जगाया जाता है; उसीप्रकार देव भी उस उपपादशिलामें ( शय्यामें उठकर सावधान होते हैं) ।। १३० ॥ किञ्चिद्धममपाकृत्य वीक्षते स शनैः शनैः । यावदाशा मुहुः लिग्धैस्तदाकर्णान्तलोचनैः ॥ १३१ ॥ अर्थ-तथा उस उपपाद शय्यामें सावधान होकर कुछ भ्रमको दूर करके उस समय कर्णान्त पर्यन्त नेत्रोंको उघाड़कर दृष्टि फेरफेर चारों ओर देखता है ॥ १३१ ॥ तत्पश्चात् क्या करता है सो कहते हैं, इन्द्रजालमथ खमः किं नु मायानमोऽनु किम् । दृश्यमानमिदं चित्रं मम नायाति निश्चयम् ॥ १३२॥ अर्थ-फिर सावधान होकर वह देव ऐसा विचारता है कि अहो! यह क्या इन्द्रजाल है ? अथवा मुझे क्या खाम आ रहा है ? अथवा यह मायामय कोई भ्रम है, यह तो बड़ा आश्चर्य देखनेमें आता है. निश्चय नहीं कि यह क्या है ? इसप्रकार सन्देहरूप होता है ॥ १३२॥ इदं रम्यमिदं सेव्यमिदं श्लाध्यमिदं हितम् । इदं प्रियमिदं भव्यमिदं चित्तप्रसत्तिदम् ॥ १३३ ।। एतत्कन्दलितानन्दमेतत्कल्याणमन्दिरम् । एतन्नित्योत्सवाकीर्णमेतदत्यन्तसुन्दरम् ॥ १३४ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471