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ज्ञानार्णवः ।
३७३ सर्वढिमहिमोपेतं महर्डिकसुरार्चितम् ।
सप्तानीकान्वितं भाति त्रिदशेन्द्रसभाजिरम् ॥ १३५ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह देव विचार करता है कि यह वस्तु रमणीय है, यह सेवनीय है, यह सराहने योग्य है, यह हितरूप है, यह प्रिय है, यह सुन्दर है, यह चित्तको प्रसन्नता देनेवाली है ॥ १३३ ॥ तथा यह आनन्दको उत्पन्न करनेवाला कल्याणका मंदिर निरन्तर उत्सवरूप तथा अत्यन्त सुन्दर है. इत्यादि विचार करता है ।। १३४ ॥ तथा यह स्थान समस्त ऋद्धि और महिमा सहित महाऋद्धिके धारक देवोंसे पूजनीय , सात प्रकारकी सेनासहित देवेन्द्रके स्थानके समान दीखता है ॥ १३५ ॥ फिर भी कुछ विशेष है,
मामेवोद्दिश्य सानन्दः प्रवृत्तः किमयं जनः । पुण्यमूर्तिः प्रियः श्लाघ्यो विनीतोऽत्यन्तवत्सलः ॥ १३६ ॥ त्रैलोक्यनाथसंसेव्यः कोऽयं देशः सुखाकरः। अनन्तमहिमाधारो विश्वलोकाभिनन्दितः ॥ १३७ ॥ इदं पुरमतिस्फीतं वनोपवनराजितम् ।।
अभिभूय जगद्भूत्या चलतीव ध्वजांशुकैः ॥ १३८॥ अर्थ-फिर वह देव विचारता है कि ये सामने जो लोग खड़े हैं वे क्या मुझे ही देखकर आनन्दसहित प्रवृत्त हैं, ये पवित्र हैं, उज्वल है मूर्ति जिनकी ऐसे हैं तथा ये सब बहुत प्रिय हैं, प्रशंसनीय हैं, विनीत हैं, चतुर हैं, अत्यन्त प्रीतियुक्त हैं ॥ १३६ ॥ तथा फिर विचारता है कि यह सुखकी खानि तीन लोकके स्वामी द्वारा सेवने योग्य कौनसा देश है ? यह देश अनन्त महिमाका आधार है, सबको वांछनीय है ॥ १३७ ॥ तथा यह नगर भी अति विस्तीर्ण है, वन उपवनोंसे शोभित है, संपदाके द्वारा समस्त जगतको जीतकर ध्वजाओंके वस्त्रों के हिलनेसे मानो दौड़ता है, नृत्यही करता है, इत्यादि विचारता है ॥ १३८ ॥
आकलय्य तदाकूतं सचिवा दिव्यचक्षुषः। नतिपूर्व प्रवर्तन्ते वक्तुं कालोचितं तदा ॥ १३९ ॥ प्रसादः क्रियतां देव नतानां खेच्छया दशा।
श्रूयतां च वचोऽस्माकं पौर्वापर्यप्रकाशकम् ॥ १४० ॥ अर्थ-तत्पश्चात् उसी समय वहांके मंत्री देव दिव्यनेत्रोंसे उस उत्पन्न हुए देवेन्द्रके अभिप्रायको समझकर नमस्कार करके कहते हैं कि- हे देव हम सेवकोंपर प्रसन्न हूजिये, निर्मल दृष्टिसे देखिये और हमारे पूर्वापर परिपाटीके प्रकाश करनेवाले वचनोंको सुनिये ॥ १३९-१४०॥