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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
किं च केचि धर्मस्य चत्वारः खामिनः स्मृताः । सद्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ता यथायोग्येन हेतुना ॥ २८ ॥
अर्थ- - तथा यह विशेष है कि कितनेही आचार्योंने धर्म ध्यानके खामी (अधिकारी) चार भी कहे हैं वे सम्यग्दृष्टी अविरतसे लेकर देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त पर्यन्त यथायोग्य हेतुसे कहे हैं ॥ २८ ॥
ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा । श्याविशुद्धियोगेन फलसिद्धिरुदाहृता ॥ २९ ॥
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अर्थ — इस धर्म ध्यानके ध्याता तीन प्रकारके भी कहे हैं और उनके ध्यान भी तीन प्रकारके कहे है, क्योंकि लेश्याकी विशुद्धतासे फलसिद्धि कही है । भावार्थ - गुणस्थानकी अपेक्षा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट मेदसे ध्याता तीन प्रकारके हैं, जहां जैसी विशुद्धता हो वैसा ही हीनाधिक ध्यानके भाव होते हैं वैसा ही हीनाधिक फल होता है ॥ २९ ॥ अब आसनके जीतनेका विधानका उपदेश करते हैं,--
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अथासनजयं योगी करोतु विजितेन्द्रियः ।
मनागपि न खिद्यन्ते समाधौ सुस्थिरासनाः ॥ ३० ॥
अर्थ
- अब यह कहते हैं कि जो योगी मुनि विशेषकरके जितेन्द्रिय हैं वे आसनका जय करो क्योंकि जिनका आसन भलेप्रकार स्थिर है वे समाधिमें किंचिन्मात्र भी खेदको प्राप्त नहीं होते । भावार्थ - आसनको जीतै तो समाधिसे ( ध्यान से ) चलायमान न
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होय ॥ ३० ॥
आसनाभ्यास वैकल्याद्वपुः स्थैर्य न विद्यते ।
खिद्यते त्वङ्गवैकल्यात्समाधिसमये ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
अर्थ — आसनके अभ्यासकी विकलतासे शरीरकी स्थिरता नहीं रहति और समा
धिके समय शरीरकी विकलतासे भी निश्चय करके खेदरूप होजाता है ॥ ३१ ॥
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वातातपतुषाराचैर्जन्तुजातैरनेकशः ।
कृतासनजयो योगी खेदितोऽपि न खिद्यते ॥ ३२ ॥
अर्थ - जो योगी आसनको जीत लेता है वह पवन आताप तुषार शीतादिकसे तथा अनेक जीवोंसे अनेक प्रकारसे पीड़ित हुआ भी खेदको प्राप्त नहीं होता । आसन जीतनेका फल यही है ॥ ३२ ॥
आसाद्याभिमतं रम्यं स्थानं चित्तप्रसत्तिदम् ।
उद्भिन्नपुलकः श्रीमान्पर्यङ्कमधितिष्ठति ॥ ३३ ॥ अर्थ-योगी मुनि आसन करते समय चित्तको प्रसन्न करनेवाले रमणीक स्थानको