________________
३६३
ज्ञानार्णवः। कृमयः पूतिकुण्डेषु वज्रसूचीसमाननाः।
भित्वा चर्मास्थिमांसानि पियन्त्याकृष्य लोहितम् ।। ७०॥ अर्थ-तथा उस नरकमें पीबके कुंडोंमें वनकी सूईसमान हैं मुख जिनके ऐसे कीड़े वा जोंके नारकी जीवोंके चमड़े और हाड़मांसको विदार कर, रक्त (खून ) को पीतीं हैं ॥ ७० ॥
बलाद्विदार्य संदशैर्वदनं क्षिप्यते क्षणात्।।
विलीनं प्रज्वलत्तानं यैः पीतं मद्यमुहतैः ॥ ७१ ॥ . अर्थ-तथा जिन पापियोंने मनुष्यजन्ममें उद्धत होकर, मद्यपान किया है; उनके मुखको संडासीसे फाड़ २ कर, तुरतके पिघलाये हुए तामेको पिलाते हैं ॥ ७१ ॥ .
परमांसानि यैः पापैर्भक्षितान्यतिनिर्दयैः ।
शुलापक्कानि मांसानि तेषां खादन्ति नारकाः ।। ७२ ॥ __ अर्थ-और जिन पापियोंने मनुष्यभवमें निर्दय होकर, अन्य जीवोंका मांस भक्षण • किया है। उनके मांसके शूले पका २ कर नारकी जीव खाते हैं ।। ७२ ॥
यैः प्राक्परकलत्राणि सेवितान्यात्मवश्चकैः।
योज्यन्ते प्रज्वलन्तीभिः स्त्रीभिस्ते ताम्रजन्मभिः ॥ ७३ ॥ अर्थ-तथा जिन आत्मवञ्चक पापी जनोंने पूर्वभवमें परस्त्री सेवन की हैं, उनको तामेकी लाल की हुई स्त्रियोंसे संगम कराया जाता है ।। ७३ ॥
नसौख्यं चक्षुरुन्मेपमात्रमप्युपलभ्यते ।
नरके नारकैदीनहेन्यमानः परस्परम् ॥ ७४ ।। अर्थ-नरकमें नारकी जीव परस्पर एक दूसरेको मारता है, सो वे दीन एक पलकमात्रं भी सुखको नहीं पाते ॥ ७ ॥
किमत्र बहुनोक्तेन जन्मकोटिशतैरपि ।
केनापि शक्यते वक्तुं न दुःखं नरकोद्भवम् ॥ ७ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-बहुत कहां तक कहें ? क्योंकि, उस नरकमें उत्पन्न हुए दुःखको कोटि जन्म लेकर भी कोई कहनेको समर्थ नहीं है तो हम क्या कह सकते हैं ॥ ७५॥
विस्मृतं यदि केनापि कारणेन क्षणान्तरे। . स्मारयन्ति तदाभ्येत्य पूर्ववैरं सुराधमाः ॥७६ ॥ अर्थ-यदि वे नारकी किसी कारणसे क्षणमात्रके लिये भूल जाते हैं तो उसी समय नीच असुर देव आकर; उन्हे पूर्ववैर याद करा देते हैं जिससे फिर वे परस्पर मार पीट करके अपनेको महादुःखीकर लेते हैं ॥ ७६ ॥