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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् क्रीडागिरिनिकुञ्जेषु पुष्पशव्यागृहेषु वा।
रमन्ते त्रिदशा यत्र वरस्त्रीवृन्दवेष्टिताः ॥ १०॥ अर्थ-तथा उन खर्गाके देव क्रीडापर्वतोंकी कुंजोंमें, पुप्पलतादिकृत कंदराओंमें पुष्पोंकी शय्यामें सुन्दर देवांगनाओंके समूहके साथ वेष्टित होकर नाना प्रकारकी आनन्दक्रीडा करते हैं ॥ १००॥
मन्दारचम्पकाशोकमालतीरेणुरक्षिताः।
भ्रमन्ति यन्त्र गन्धाढ्या गन्धवाहाः शनैः शनैः ।। १०१॥ अर्थ-उन ख!में मंदार, चम्पक, अशोक, मालतीके पुप्पोंकी रजसे रंजित भ्रमरों. सहित मन्द मन्द सुगन्ध पवन बहता है ॥ १०१ ॥
लीलावनविहारैश्च पुष्पावचयकौतुकैः ।
जलक्रीडादिविज्ञानैर्विलासास्तत्र योपिताम् ॥ १०२॥ अर्थ-तथा उन वर्गों में देवांगनाओंके विलास, क्रीडावनके विहारोंसे तथा पुप्पोंके चुननेके कौतुकसे तथा जलक्रीडाके विज्ञानोंसे (चतुराइयोंसे) बड़ी शोभा है ॥ १०२ ॥
वीणामादाय रत्यन्ते कलं गायन्ति योपितः ।
ध्वनन्ति मुरजा धीरं दिवि देवाङ्गनाहताः ॥ १०३ ॥ अर्थ-तथा उन ख!में देवांगनायें संभोगके अन्तमें वीणा लेकर सुन्दर गान करती हैं तथा उनके बजायेहुए मृदंग धीरे २ बजते हैं ॥ १०३ ॥
कोकिलाः कल्पवृक्षेषु चैत्यागारेषु योषितः ।
विबोधयन्ति देवेशांल्ललितैर्गीतनिःस्वनैः ॥ १०४ ॥ अर्थ-तथा उन वर्गों में कल्पवृक्षोंपर तो कोकिलायें और चैत्यमन्दिरों में देवांगनायें सुन्दर गीत और शब्दोंसे इन्द्रोंको जगाती करती हैं ॥ १०४ ॥
नित्योत्सवयुतं रम्यं सर्वाभ्युद्यमन्दिरम् ।
सुखसंपद्गुणाधारं कैः खर्गमुपमीयते ॥ १०५ ।। अर्थ-प्रत्येक वर्ग नित्यही उत्सवोंसहित है, रमणीक है, समस्त अभ्युदयोंके भो. गोंका निवास है तथा सुख, संपदू और गुणोंका आधार हैं सो उसको किसकी उपमा दी जाय ? ॥ १०५ ॥
पञ्चवर्णमहारत्ननिर्माणाः सप्त भूमिकाः।
प्रासादाः पुष्करिण्यश्च चन्द्रशाला वनान्तरे ॥ १०६ ॥ अर्थ-तथा उन वर्गों के बागोंमें पांच वर्षों के रनोंसे बने हुए सात सात खनके महल हैं और वापिका तथा चन्द्रशाला ( शिरोगृह-अंटे ) हैं ॥ १०६ ॥