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ज्ञानार्णवः ।
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अर्थ — तथा उन स्वर्गो में उत्पात, भय, सन्ताप, भंग चौर, शत्रु, वञ्चक तथा क्षुद्र जीव, दुर्जन ये खममें भी नहीं दीखते ॥ ९३ ॥
चन्द्रकान्तशिलानद्धाः प्रवालदलदन्तुराः ।
वन्द्रनील निर्माणा विचिन्नास्तत्र भूमयः ॥ ९४ ॥
अर्थ – उन देवोंके निवासोंमें पृथिवी चन्द्रकान्त मणियोंसे बँधी हुई है तथा मूंगेके पत्रकी समान रची हुई है. तथा कहीं २ हीरा इन्द्रनीलमणि आदि नाना प्रकारके रत्नोंसे बनी हुई है ॥ ९४ ॥
माणिक्यरोचिषां चत्रैः कर्बुरीकृतदिग्मुखाः ।
वाप्यः स्वर्णाम्बुजच्छन्ना रत्नसोपानराजिताः ॥ ९५ ॥
अर्थ—तथा खर्गेमें वापिकायें माणिककी किरणोंके समूहोंसे दशों दिशाओंको अनेक वर्णमय कर रही हैं तथा सुवर्णमय कमलोंसे आच्छादित और रत्नमय सीढ़ियोंसे सुशोभित हैं ॥ ९५ ॥
सरांस्यमलवारीणि हंसकारण्डमण्डलैः ।
वाचा रुद्रतीर्थानि दिव्यनारीजनेन च ॥ ९६ ॥
अर्थ — स्वर्गमं सरोवर भी अतिस्वच्छ निर्मल जलवाले हैं, हंस वा कारंड जातिके पक्षियोंके समूहसे तथा देवांगना वा ( अप्सराओं) से रुके हुए हैं तट जिनके ऐसे हैं ॥ ९६ ॥
गावः कामदुघाः सर्वाः कल्पवृक्षाच पादपाः । चिन्तारत्नानि रत्नानि स्वर्गलोके स्वभावतः ॥ ९७ ॥
अर्थ - तथा उस स्वर्गमं गौ हैं वे तौ कामधेनु हैं, वृक्ष हैं सो कल्पवृक्ष हैं और रत्न हैं सो चिन्तामणी रत्न हैं. ये सब क्षेत्रके खभावसे निरन्तर रहते हैं ॥ ९७ ॥
ध्वजचामरछत्राङ्गैर्विमानैर्वनितासखाः ।
संचरन्ति सुरासारैः सेव्यमानाः सुरेश्वराः ॥ ९८ ॥
अर्थ- - उन खर्गेौके अधिपति इन्द्र ध्वजा, चामर, छत्रोंसे चिह्नित हुए विमानोंके द्वारा अनेक देवांगनाओंसहित यत्र तत्र विचरते हैं. उनकी अनेक देव सेवा करते हैं ॥ ९८ ॥
यक्षकिन्नरनारीभिर्मन्दारवनवीथिषु ।
कान्तश्लिष्टाभिरानन्दं गीयन्ते त्रिदशेश्वराः ॥ ९९ ॥
अर्थ — तथा वहांके इन्द्र, मंदारवृक्षोंकी गलियों में यक्ष और किन्नर जातीय देवोंकी देवांगना अपने पतिसहित आलिंगित आनंदसे भरी गाती हैं, उनके गीत सुनते हैं ॥ ९९ ॥