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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम हड्डियोंको चूर्ण कर डालते हैं, उदरको फाड़ते हैं और क्रोधी होकर, उसकी आंतोंको तोड़ डालते हैं ।। ६३॥
निष्पीडयन्ति यन्त्रेषु दलन्ति विषमोपलैः।
शाल्मलीषु निघर्षन्ति कुम्भीषु काथयन्ति च ॥ ६४ ॥ अर्थ-तथा वे नारकी उसे घानीमें डालकर पीलते हैं और कठिन पाषाणोंसे दलते हैं, लोहेके कांटेवाले वृक्षोंसे घिसते (रगड़ते ) हैं तथा कुंभियोंमें (कलशियोंमें ) डालकर, काढ़ा करते ( उबालते) हैं ॥ ६४ ॥
असह्यदुःखसन्तानदानदक्षाः कलिप्रिया। तीक्ष्णदंष्टा करालास्या भिन्नाञ्जनसमप्रभाः ॥६५॥ कृष्णलेश्योद्धताः पापा रौद्रध्यानकभाविताः।
भवन्ति क्षेत्रदोषेण सर्वे ते नारकाः खलाः ॥६६॥ अर्थ-तथा वे नारकी कैसे हैं कि-असह्य दुःखोंकी निरन्तरता देनेमें चतुर हैं, कलह करना ही जिनको प्रिय है, तीक्ष्ण दाह्रोंसे भयानक मुखवाले हैं, विखरे हुए काजलकी समान जिनके शरीरकी काली प्रभा है । तथा कृष्णलेश्याके कारण उद्धत हैं, पापरूप हैं और एक रौद्रध्यानके भावनेवाले हैं एवं क्षेत्रके दोपसे वे सबही नारकी दुष्ट होते है ॥ ६५-६६ ॥
वैक्रियिकशरीरत्वादिक्रियन्ते यदृच्छया।
यन्नाग्निश्वापदाङ्गैस्ते हन्तुं चित्रैर्वधैः परान् ॥१७॥ अर्थ-उन नारकियोंका वैक्रियिक शरीर होनेके कारण अपनी इच्छानुसार घाणी अमि हिंसजन्तु सिंहादिकका रूप बनाकर, अनेकप्रकारसे परस्पर मारनेके लिये विक्रिया करते हैं ॥ ६७ ॥
न तत्र बान्धवः खामी मित्रभृत्याङ्गनाङ्गजाः।
अनन्तयातनासारे नरकेऽत्यन्तभीषणे ॥ ६८॥ अथे-उस अत्यन्त भयानक नरकमें न तो कोई बांधव है, न कोई हितू है, न कोई मित्र है, न कोई भृत्यही है, न स्त्री है, न पुत्र है, केवल अनन्त यातनाका भयानक वृष्टिपातही है ॥ ६८॥
तत्र ताम्रमुखा गृध्रा लोहतुण्डाश्च वायसाः।
दारयन्त्येव मर्माणि चञ्चभिनखरैः खरैः ॥ ६९॥ अर्थ-उस नरकमें तामेकेसे मुख चोंच जिनके ऐसे तो गृध्रपक्षी हैं और लोहेकी चोंचवाले काक हैं, सो चोंचोंसे तथा तीक्ष्ण नखोंसे नारकी जीवोंके मौको विदारते हैं ।। ६९ ॥