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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् किसीप्रकार भी चलायमान न हो तथा जिसके वेगोंका संकल्प शान्त होगया हो, समस्त भ्रम जिसके नष्ट होगये हों, ऐसा निश्चल हो कि समीपस्थ प्राज्ञ पुरुष भी ऐसा भ्रम करने लगजायँ कि यह क्या पाषाणकी मूर्ति है वा चित्रामकी मूर्ति है इसप्रकार आसन जीतनेका विधान कहा ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ ४०॥
दोहा। आसन दिढतें ध्यानमें, मन लागै इकतान । तातै आसनयोगकू, मुनि कर धारै ध्यान ॥ २८ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे आसनजयो
नाम अष्टाविंशं प्रकरणं समाप्तं ॥ २८॥
अथैकोनत्रिंशं प्रकरणम्।
अब प्राणायामका वर्णन करते हैं
सुनिर्णीतसुसिद्धान्तः प्राणायामः प्रशस्यते ।
मुनिभिानसिद्ध्यर्थं स्थैयार्थ चान्तरात्मनः ॥ १॥ अर्थ-भलेप्रकार निर्णयरूप किया है सत्यार्थसिद्धान्त जिन्होंने ऐसे मुनियोंने ध्यानकी सिद्धिके तथा मनकी एकाग्रताके लिये प्राणायाम प्रशंसनीय कहा है। भावार्थ-अन्यमती भी प्राणायामका साधन करते हैं, किन्तु उनका प्रयोजन तथा खरूप यथार्थ नहीं है. जैनाचार्योंये सर्वज्ञभाषित आगम तथा स्याद्वादन्यायरूप सिद्धान्तसे निर्णय करके सिद्धि और मनकी एकाग्रतासे आत्मखरूपमें ठहराना इन दोनों प्रयोजनोंके लिये प्राणायामको सराहा है-इससे इष्ट प्रयोजनकी सिद्धि होती है उसका वर्णन गौण किया है और ध्यानकी सिद्धिसे आत्मखरूपमें लीन होनेसे मुक्ति होती है ऐसा प्रयोजन प्रधान है॥१॥ ___ अतः साक्षात्स विज्ञेयः पूर्वमेव मनीषिभिः ।
मनागप्यन्यथा शक्यो न कर्तुं चित्तनिर्जयः॥२॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-ध्यानकी सिद्धिके लिये मनको एकाग्र करनेके लिये पूर्वाचार्योंने प्राणायामकी प्रशंसा कीयी है, इसकारण ध्यान करनेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंको प्रथमसे ही प्राणायामको विशेषप्रकार से जानना चाहिये क्योंकि इसके जाने विना भन्यप्रकार किंचिन्मात्र भी मनके जीतनेको समर्थ नहीं होसक्ते । भावार्थ-यह प्राणायाम पवनका साधना है. सो शरीरमें जो पवन होता है वह मुखनासिकादिके द्वारा