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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-जिसका ज्ञान नहीं होते तो मैं सोया और जिसके ज्ञान होते हुए मैं उठा (जगा) वह रूपभी मेरे जाननेयोग्य प्रत्यक्ष है. वहही मैं हूं । इसप्रकार विचार करै॥३१॥ - ज्योतिर्मयं ममात्मानं पश्यतोऽत्रैच यान्त्यमी।
क्षयं रागादयस्तेन नारिः कोऽपि प्रियो न मे ॥ ३२॥ अर्थ-फिर यह विचारै कि-मैं अपनेको ज्योतिर्मय ज्ञानप्रकाशरूप देखता हूं, मेरे रागादिक इसीमें क्षयको प्राप्त होते हैं इसकारण मेरे न तो कोई शत्रु है और न कोई मित्र है ॥ ३२ ॥
अदृष्टमत्स्वरूपोऽयं जनो नारिन मे प्रियः।
साक्षात्सुदृष्टरूपोऽपि जनो नारिः सुहृन्न मे ॥ ३३ ॥ ___ अर्थ नहीं देखा है मेरा स्वरूप जिसने ऐसा लोक न तो मेरा शत्रु है न मित्र है
और जिसने साक्षात् मेरा खरूप देखा वह लोक भी मेरा न शत्रु है और न मित्र ही है. इसप्रकार विचार करै ॥ ३३ ॥ ____ अतःप्रभृति निःशेषं पूर्व पूर्व विचेष्टितम् ।
ममाद्यज्ञाततत्वस्य भाति स्वमेन्द्रजालवत् ॥ ३४ ॥ अर्थ-यहांसे लगाकर, तत्त्वखरूपके जाननेसे पहिले पहिले जो मैंने सर्व प्रकारकी चेष्टायें करीं, अब स्वरूप जाननेसे मुझे वे सब खप्नसदृश अथवा इन्द्रजालवत् प्रतिभासती हैं ॥ ३४ ॥
यो विशुद्धः प्रसिडात्मा परं ज्योतिः सनातनः ।
सोऽहं तस्मात्प्रपश्यामि स्वस्मिन्नात्मानमच्युतम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-विशुद्ध है (निर्मल) और प्रसिद्ध है आत्मखरूप जिसका ऐसा परमज्योति सनातन जो सुनने में आता है सो मैं ही हूं इसकारण अपनेमेही अविनाशी परमात्माको मैं प्रकटतया देखता हूं. इसप्रकार अपनेको ही परमात्मखरूप देखे ॥ ३५॥
बाह्यात्मानमपि त्यक्त्वा प्रसन्नेनान्तरात्मना।
विधूतकल्पनाजालं परमात्मानमामनेत् ॥ ३६॥ अर्थ-फिर बाह्य आत्माको भी छोड़कर प्रसन्नरूप अन्तरात्माके द्वारा मिटे हैं कल्पनाके जाल (समूह) जिसके ऐसे परमात्माको अभ्यासगोचर करै ॥ ३६॥
बन्धमोक्षाबुभावती अमेतरनिवन्धनौ।।
बन्धश्च परसंबन्धाद्भेदाभ्यासात्ततः शिवम् ॥ ३७॥ अर्थ-बन्ध और मोक्ष ये दोनों भ्रम और निर्मम है कारण जिनका ऐसे हैं. उनमेसे परके संबन्धसे तौ वन्ध है और परद्रव्यके भेदके अभ्याससे मोक्ष है ॥ ३७॥