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ज्ञानार्णवः । -
अब जो भावसे सुख दुःख होता है; उसका वर्णन करते हैं । प्रशमादिसमुद्भूतो भावः सौख्याय देहिनाम् । कर्मगौरवजः सोऽयं महाव्यसनमन्दिरम् ॥ ९ ॥ अर्थ- जो कर्मके उपशमादिकसे उत्पन्न हुआ भाव है, वह तो जीवोंको सुखके अर्थ है; और जो कर्मके तीव्र गुरुपनासे उत्पन्न हुआ भाव है, सो महान् कष्टका घर है ॥ ९ ॥
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मूलप्रकृतयस्तत्र कर्मणामष्ट कीर्तिताः ।
ज्ञानावरणपूर्वास्ता जन्मिनां वन्धहेतवः ॥ १० ॥
अर्थ – कर्मकी मूल प्रकृति ( भेद ) आठ कहीं है । ज्ञानावरैणादिक वे जीवोंके बंधनका कारण हैं ॥ १० ॥
ज्ञानावृतिकरं कर्म पञ्चभेदं प्रपञ्चितम् ।
निरुद्धं येन जीवानां मतिज्ञानादिपञ्चकम् ॥ ११ ॥
अर्थ-उन आठ कर्म प्रकृतियोंमंसे प्रथम ज्ञानको आवरण करनेवाला ज्ञानावरणीय कर्म पांचे भेदरूप कहा गया है । इन पांचों ज्ञानावरण कर्मोंने जीवोंके मति ज्ञानादिक (मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ) पांचों ज्ञानोंको रोक रक्खा है अर्थात् ढक रक्खा है ॥ ११ ॥
नवभेदं मतं कर्म दुगावरणसंज्ञकम् ।
रुद्ध्यते येन जन्तूनां शश्वदिष्टार्थदर्शनम् ॥ १२ ॥
अर्थ- दूसरा दर्शनावरण नामका कर्म वह नवें प्रकारका है; जिसने जीवोंके निरन्तर इष्ट वस्तुके दर्शनको रोक रक्खा है अर्थात् ढक रक्खा है ॥ १२ ॥
वेदनीयं विदुः प्राज्ञा द्विधा कर्म शरीरिणाम् । यन्मधूच्छिष्टतद्व्यक्त - शस्त्रधारासमप्रभम् ॥ १३ ॥
अर्थ - इसके पश्चात् तीसरा वेदनीय कर्म दो प्रकारका है, एक सातावेदनीय और दूसरा असातावेदनीय । सो यह कर्म जीवोंको सहत लिपटी तरवारकी धारके समान किंचित् सुखदायक है ॥ १३ ॥
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१ ज्ञानावरणीय १ दर्शनावरणीय २ मोहनीय ३ अन्तराय ४ वेदनीय ५ आयुः ६ नाम ७ और गोत्र 'आठ मूल प्रकृति हैं ।
ये
२ मतिज्ञानावरणीय १ श्रुतज्ञानावरणीय २ अवधिज्ञानावरणीय ३ मन:पर्ययज्ञानावरणीय ४ और केवल ज्ञानावरणीय ।
३ निद्रा १ निद्रानिद्रा २ प्रचला ३ प्रचलाप्रचला ४ स्थानगृद्धि ५ चक्षुर्दर्शनावरणीय ६ अचक्षुर्दर्शनावरणीय ७ अवधिदर्शनावरणीय ८ और केवलदर्शनावरणीय ।